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देश के भविष्य

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बच्चो,
तुम इस देश के भविष्य हो,
तुम दिखते हो कभी,
भूखे, नंगे ||

कभी पेट की क्षुधा से,
बिलखते-रोते.
एक हाथ से पैंट को पकड़े,
दूजा रोटी को फैलाये ||

कभी मिल जाता है निवाला
तो कभी पेट पकड़ जाते लेट,
होली हो या दिवाली,
हो तिरस्कृत मिलता खाना ||

जब बच्चे ऐसे है,
तो देश का भविष्य कैसा होगा,
फिर भीबच्चो,
तुम ही इस देश के भविष्य हो ||


नोट :- सभी चित्र गूगल से लिए गए है |

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सप्त सिन्धु --सरस्वती नदी रहस्य एवं भारत की मूल प्रागैतिहासिक नदियाँ ---(डा श्याम गुप्त)


                               ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...



      रस्वती नदी रहस्य एवं भारत की मूल प्रागैतिहासिक नदियाँ ---(डा श्याम गुप्त)
      किसी भी देश, संस्कृति व सभ्यता की संरचना, पुरातनता, उसकी महत्ता, विशिष्टता आदि के ज्ञान हेतु उसके एवं उसके सन्दर्भ में अन्य सभ्यताओं, देशों, संस्कृतियों के साहित्यिक, एतिहासिक विवरणों, तथ्यों एवं प्रागैतिहासिक संरचनाओं व परिवर्तनों व विकास का ज्ञान आवश्यक व महत्वपूर्ण होता अपेक्षाकृत वैज्ञानिक खोजों के क्योंकि पुरातनता के भौतिक साक्ष्य प्रायः नष्टप्राय होते हैं | भारतजैसे विश्व के प्राचीनतम राष्ट्र एवं मानव-सभ्यता के पालने के सन्दर्भ में यह और भी सत्य है, जिसकी सभ्यता, संस्कृति का प्राच्य विज्ञानवेत्ता, विद्वान्, खोजी किसी भी एतिहासिक ज्ञान, विवरण, व्याख्या के समय शायद ही स्मरण करते हैं | स्वयं भारतीय विद्वान् जो प्राच्य द्वारा प्रस्तुत ज्ञान से रोमांचित हैं इसी भ्रम के शिकार हैं कि गुलामी के काल से पहले भारत का कोई इतिहास व सांस्कृतिक मूल्य था ही नहीं | इसी भ्रम के कारण विश्व के कुछ भ्रामक अनसुलझे तथ्य विश्व-पटल पर उदित हुए यथा....; भारत में आर्य विदेशी आक्रमणकारी के रूप में आये .... आर्य –अनार्य , सुर-असुर हरप्पा सभ्यता ...सरस्वती-सिन्धु नदी के अनसुलझे तथ्य...आर्य-अनार्य, सुर-असुर संबंधी भ्रामक तथ्य आदि | अंग्रेज़ी काल की राजनैतिक दृष्टि व आकांक्षा, हिन्दू-सनातन धर्म विरोधी धुरी के प्रभाव व वर्चस्व के कारण ये तथ्य और भी भ्रामक बना दिए गए |
       किसी देश या भौगोलिक क्षेत्र के आदि, प्रागैतिहासिक, एतिहासिक ज्ञान व स्थिति एवं सांस्कृतिक संरचना के ज्ञान हेतु उस क्षेत्र की नदियों का इतिहास अत्यंत महत्वपूर्ण है | भारत के सन्दर्भ में भारत की मूल प्रागैतिहासिक नदियाँ ---सरस्वती, सिन्धु, यमुना, गोमती, ब्रह्मपुत्र, गंगा एवं नर्मदा के उद्गम, प्रवाह व विलय के इतिहास, इनके कालानुसार प्रवाह परिवर्तन एवं वर्तमान स्थिति इनके वैज्ञानिक, भौगोलिक, एतिहासिक, पौराणिक, धार्मिक व दार्शनिक, साहित्यिक विवरणों पर गहन दृष्टिपात एवं उनके परस्पर समन्वित अध्ययन से भारतीय उपमहाद्वीप की वास्तविक स्थिति का ज्ञान एवं विभिन्न विवादित बिन्दुओं पर विचार किया जा एकता है |
       इन नदियों से सम्बंधित कुछ अनसुलझे प्रश्न व विवरण, कथाएंआदि इस प्रकार हैं ---
१. सरस्वती नदी के किनारे आदि सभ्यता का विकास व उसकी विलुप्ति ..क्या वास्तव में यह कोई नदी थी या कल्पना. ..सिन्धु व सरस्वती का अंतर्संबंध ....क्या सरस्वती ही सिन्धु का पूर्व रूप है --- मानारोवर क्षेत्र एवं सप्त-सिन्धु क्षेत्र में प्रथम मानव व प्रथम मानव-सभ्यता  की उत्पत्ति ....
२, यमुना की प्राचीनता व गंगा से पूर्व उपस्थिति ...वर्तमान में बंगाल में ब्रह्मपुत्र का यमुना के नाम से प्रवाह ..एवं संगम–प्रयाग में सरस्वती की उपस्थिति ..
3. ब्रह्मपुत्र नदी के विभिन्न काल में विपरीत दिशाओं में प्रवाह व मार्ग परिवर्तन .... 
४. गोमती नदी को आदि-गंगा नाम से पुकारा जाना ...
५. नर्मदा का आदि नदी एवं नर्मदा घाटी में प्रथम जीव व आदि मानव की उत्पत्ति ...
६. सिन्धु घाटी सभ्यता ( या हरप्पा या सरस्वती घाटी सभ्यता या सिन्धु-सरस्वती सभ्यता )
       इन प्रश्नों के अनसुलझे उत्तरों को हम ढूँढने का प्रयत्न करेंगे ----
                
(क)  ऋग्वेद में --- नदियाँ -----
--- -मंडल -१सू १६४/१७५२- सरस्वती ---वाणी विद्या कला की देवी----नदी नहीं ...
----मंडल-३सू-३०..विपाशा, सिन्धु, सरयू ..नदियाँ
----३३८५ –उतत्या सद्य आर्या सरयोरिन्द्र पारतः| अर्णो चित्ररथ बधी: || ---सरयू किनारे बसी अर्ण व चित्ररथ नामक आर्य शासकों को इंद्र ने तत्काल मार दिया |
----३३७९-उत सिन्धु विवात्यं वितस्थानामधिक्षामि | परिष्ठा इंद्र मायया |---आपने समस्त जल को तथा परिपूर्ण रूप से भरी हुई बेग से प्रवाहित सिन्धु को अपनी माया ( बुद्धि-कौशल) से धरती पर सब जगह स्थापित किया | ----यहाँ पर सिधु नदी नहीं अपितु समस्त जल धाराओं का सन्दर्भ है …..
मंडल-५–सू-५२ -४०३३---परुष्णी नदी ...वायु की लहरों को कहा गया है जिसमें मरुद्गण (मेघ ) रहते हैं |
--मं.५, सू-५२-४०९४ ---यमुना---गाय, घोड़ों का शोधन –निराधो =निश्चिंतता से आराधना ..
--मं५-सू.५३—४१०३ –सरयू ...रसा, अनितभा, कुभा, सिन्धु–हमें न देखें ..
--मं -५ , सू-६१-गोमती के किनारे रथवीति का निवास ---
मंडल-६-सू -४५--४८०२ –गंगा ...अधि वृबु: पणीनां वर्षिष्ठे मूर्धन्तस्थात| उरु कक्षो न: गांड्.गय: || ---वृबु ने पणियों ( व्यापारियों, असुरों ) के बीच ऊंचा स्थान प्राप्त किया | वे गंगा के ऊंचे तटों के समान महान हुए |
मं -६सू-६१--सरस्वती नदी के किनारे दिवोदास द्वारा सभ्यता की स्थापना ---
“ उत न: प्रिया प्रियासु सप्तस्वसा सुजुष्य | सरस्वती स्तोम्या भूत ||--प्रियजनों में अतिप्रिय सात बहनों (धाराओं या सहायक नदियों– वाणी के सप्त स्वरों सरगम) से युक्त, सरस्वती स्तुत्य हैं|
----स्वर्ग व पृथ्वी को अपने तेज से भरने वाली --- अर्थात स्वर्ग में भी थी .....
-------ऋग्वेद मन्त्र१०:७५:५ एवं ३:२३:४ के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शतुद्री (सतलज), परुशणी (रावी), असिक्नी (चेनाब), वितस्ता, आर्जीकीया (व्यास) एवं सिन्धु, पंजाब की ये सभी नदियाँ सरस्वती की सहायक नदियाँ थीं।
---------ऋग्वेद मन्त्र ६:६१:१०,१२; ७:३६:६ में सरस्वती को सात बहनों वाली और सिन्धुनदी की माताकहा गया है।
(ब) ६ प्रागैतिहासिक नदियाँ का संक्षिप्त वर्णन----

                           सरस्वती ---
-------विलुप्त सरस्वती की जीवनगाथा में अंतर्निहित भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के उदय की गाथा ऋग्वेद मन्त्र ६:६१:१०,१२; ७:३६:६ में सरस्वती को सात बहनों वाली और सिन्धुनदी की माताकहा गया है। इन मंत्रो से प्रकट होता है कि ऋग्वेदिक काल मेंसरस्वती सदानीरा महानदीथी, जो हिमालय की हिमाच्छादित शिखाओं से अवतरितहोकर आज के पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी राजस्थान, सिंध प्रदेश व गुजरातक्षेत्र को सिंचित कर शस्य-श्यामला बनती थी।
------इस सन्दर्भ में ऋग्वेद मन्त्र१०:७५:५ एवं ३:२३:४ के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शतुद्री (सतलज), परुशणी (रावी), असिक्नी (चेनाब), वितस्ता, आर्जीकीया (व्यास) एवं सिन्धु, पंजाब की ये सभी नदियाँ सरस्वती की सहायक नदियाँ थीं।
--------पिछले कुछ वर्षों में उपग्रह से लिए गए चित्रों के माध्यम से वैज्ञानिकोंने एक ऐसी विशाल नदी के प्रवाह-मार्ग का पता लगा लिया है जो किसी समय परभारत के पश्चिमोत्तरक्षेत्र में बहती थी। उपग्रह से लिए गए चित्र दर्शाते हैं कि कुछ स्थानोंपर यह नदी आठ किलोमीटर चौड़ी थी और कि यह चार हज़ार वर्ष पूर्व सूख गई थी।
-------किसी प्रमुख नदी के किनारे पर रहने वाली एक विशाल प्रागैतिहासिक सभ्यता कीखोज ने इस प्रबल होते आधुनिक विश्वास को और पुख़्ता कर दिया है कि सरस्वतीनदी वास्तविक नदी थी |
 --------इस नदी के प्रवाह-मार्ग पर एक हज़ार से भी अधिकपुरातात्त्विक महत्व के स्थल मिले हैं और वे ईसा पूर्व तीन हज़ार वर्षपुराने हैं। इनमें से एक स्थल उत्तरी राजस्थान में प्रागैतिहासिक शहरकालीबंगनहै। इस स्थल से कांस्य-युग के उन लोगों के बारे में महत्वपूर्णजानकारी का ख़ज़ाना मिला है जो वास्तव में सरस्वती नदी के किनारों पर रहतेथे।
--------पुरातत्त्वविदों ने पाया है कि इस इलाक़े में पुरोहित, किसान, व्यापारीतथा कुशल कारीगर रहा करते थे। इस क्षेत्र में पुरातत्त्वविदों को बेहतरीनक़िस्म की मोहरें भी मिली हैं जिन पर लिखाई के प्रमाण से यह संकेत मिलता हैकि ये लोग साक्षर थे। यद्यपि इन मोहरों की गूढ़-लिपि ( चित्र लिपि )का अर्थ अभी तक नहीं निकाला जा सका है।
------आज सिंधु घाटी की सभ्यता( हरप्पा या अब सरस्वती घाटी सभ्यता )प्राचीनतम सभ्यता जानीजाती है। ------------वास्तव में यह सभ्यता एक बहुत बड़ी सभ्यता का अंशहै, जिसके अवशिष्ट चिन्ह उत्तर में हिमालय की तलहटी (मांडा) से लेकरनर्मदा और ताप्ती नदियों तक और उत्तर प्रदेश में कौशाम्बी से गांधार (बलूचिस्तान) तक मिले हैं। अनुमानत: यह पूरे उत्तरी भारत में थी। यदि इसेकिसी नदी की सभ्यता ही कहना हो तो यह उत्तरी भारत की नदियों की सभ्यता है।इसे कुछ विद्वान प्राचीन सरस्वती नदी की सभ्यताया फिर सरस्वती-सिन्धु सभ्यता कहते हैं। कालांतर मेंबदलती जलवायु और राजस्थान की ऊपर उठती भूमि के कारण सरस्वती नदी सूख गयी।

          वैदिक धर्मग्रंथों के अनुसार धरती पर नदियों की कहानी सरस्वती से शुरूहोती है। सरस्वती नदी वैदिक काल में इतनी पवित्र समझी जाती थी कि परवर्ती काल में इसको विद्या, बृद्धि तथा वाणी की देवी के रूप में माना गया। इस नदी का उद्गम हर की दून ग्लेशियर में यमुनोत्री के पास है।सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती सर्वप्रथम पुष्कर में ब्रह्म सरोवरसे प्रकट हुई। पुराणों के अनुसार आदिम मनु स्वायंभुव का निवास स्थल सरस्वती नदी के तट परथा।कहा जाता है कि कार्तिकेय (शिव के पुत्र जिनका एक नाम स्कंद भी है) कोसरस्वती के तट पर देवताओं की सेना का सेनापति (कमांडर) बनाया गया था।चंद्रवंशी राजकुमार पुरुरवा को उनकी भावी पत्नी उर्वशी भी यहीं मिली थी।  सरस्वती के बारे में कुछ तथ्य विशिष्टहैं----
१.ऋग्वेद के नदी सूक्त १०-७५ में सरस्वती को यमुना के पूर्व व सतलज के पश्चिम मेंबहता बताया है..|
२.प्रयाग (इलाहाबाद ) में त्रिवेणी संगम ----
.दृषवती नदी--सरस्वती और दृश्वती परवर्ती काल में ब्रह्मावर्त की पूर्वी सीमा की नदियां कही गई हैं। --दृषदवती (=ब्रह्मपुत्र ) व दृष्टावती (=सरस्वती-यमुना की सहायक नदी-जो आदिकाल की पश्चिमोन्मुखी ब्रह्मपुत्र की अवशेष नदी हो सकती है )–दो पृथक नदियाँ हैं ....           
4.यमुना सबसे प्राचीन नदी एवं कालान्तर से सरस्वती-यमुना- गंगा का एक दूसरे की सहायककी भांति स्थिति -- भारत कोश के अनुसार -पहिले दो वरसाती नदियाँ 'सरस्वती'और 'कृष्ण
गंगा'मथुरा के पश्चिमीभाग में प्रवाहित होकर यमुना में गिरती थीं, जिनकी स्मृति में यमुना के
सरस्वती संगम और कृष्ण गंगा नामक धाट हैं।अर्थात कभी सरस्वती व गंगा स्वयं, यमुना की सहायक नदियाँ थीं ...शास्त्रों के अनुसार यमुना, सरस्वती नदी की सहायक नदी रहीहै। जो बाद में गंगा में मिलने लगी। सरस्वती का उद्गम स्थल की प्लक्ष-प्रस्रवन के रूप में पहचान की गयी है जो जमुनोत्री के पास हीस्थित है |  – महाभारत के अनुसार कुरुक्षेत्र तीर्थ सरस्वती नदी के दक्षिण और दृष्टावती नदी के उत्तर में स्थित है|
५.स्कन्द पुराण के अनुसार आदिकाल में समुद्र तट पर स्थित अवन्ती राज्य के उत्तरी भाग उज्जयिनी में ब्रह्माणि हंसवाहिनी सरस्वती नदी अवस्थित थी जो आज ब्रह्माणी नदी है |


                   चित्र१-सरस्वती व सहायक नदियाँ –वैदिक काल


 चित्र-2. महाभारतकालीन उत्तरी भारत  
        ऋग्वेद तथा अन्य पौराणिक वैदिक ग्रंथों में दिये सरस्वती नदी केसन्दर्भों के आधार पर कई भू-विज्ञानी मानते हैं कि हरियाणा से राजस्थानहोकर बहने वाली मौजूदा सूखी हुई घग्घर-हकरा नदी प्राचीन वैदिक सरस्वती नदीकी एक मुख्य सहायक नदी थी, जो ५०००-३००० ईसा पूर्व पूरे प्रवाह से बहती थी।ऋग्वेद में सरस्वती नदी को नदीतमा कीउपाधि दी गयी है।वैदिक सभ्यतामें सरस्वती ही सबसे बड़ी और मुख्य नदी थी।इसरो द्वारा किये गये शोधसेपता चला है कि आज भी यह नदी हरियाणा, पंजाब और राजस्थान से होती हुई भूमिगतरूप में प्रवाहमान है| -----'ततो विनशनं गच्छेन्नियतोनियताशन: गच्छत्यन्तर्हिता यत्र मेरूपृष्ठे सरस्वती... अर्थात मेरुपृष्ठ से निकलने वाली सरस्वती विनशन स्थान में अन्तर्निहित होगई एवं केवल मेरुपृष्ठ तक सीमित रह गयी -- अर्थात पुनः स्वर्ग में प्रवेश ... |
     शतपथ ब्राह्मण में विदेघ (विदेह) के राजा माठव का मूलस्थान सरस्वती नदी के तट पर बतायागया है और कालांतर में वैदिक सभ्यता का पूर्व की ओर प्रसार होने के साथ हीमाठव के विदेह (बिहार) में जाकर बसने का वर्णन है। इस कथा से भी सरस्वती कातटवर्ती प्रदेश वैदिक काल की सभ्यता का मूल केंद्र प्रमाणित होता है।
           महाभारत में अनेक स्थानों परसरस्वती का उल्लेख है।श्रीमद भागवत में यमुना तथा  दृषद्वतीके साथ इसका उल्लेख है|   मेघदूतमेंकालिदास ने सरस्वती काब्रह्मावर्त के अंतर्गत वर्णन किया है | पारसियों के धर्मग्रंथ जेंदावस्ता मेंसरस्वती का नाम हरहवतीमिलता है। हड़प्पा सभ्यता की अधिकाँश बस्तियां सरस्वती के तट पर पायी जाती हैं अतः अब शोधों से सिद्ध होगया है किहड़प्पा सभ्यता  मूलतः सरस्वती सभ्यताथी |
          आधुनिक खोजों के अनुसारलगभग ५००० वर्ष पूर्व अरावली पर्वत श्रेणियों के उठने से उत्पन्न भूगर्भीय एवं सागरीय हलचलों में राजस्थान की भूमि उठने से यमुना जो दृशवती की सहायक नदी थी पूर्व की ओर बहकर गंगा में मिल गयी तथा सतलज आदि अन्य नदियाँ पश्चिम की ओर सिन्धु में मिल गयीं  सरस्वती के विशाल जलप्रवाह द्वारा समस्त भूमि पर उत्पन्न जलप्रलय ने स्थानीय सभ्यता का विनाश किया एवं स्वयं नदी सूख कर विभिन्न झीलों में परिवर्तित होगई| सरस्वती का अर्थ है सरोवरों वाली नदी | हरियाणा व राजस्थान के विभिन्न सरोवर व झीलें ब्रह्मसर,ज्योतिसर, स्थानेसर,खतसर,रानीसर,पान्डुसर; पुष्कर सरस्वती के प्राचीन प्रवाह-मार्ग में ही हैं... इस प्रकार सरस्वती विलुप्तहोगई एवं द्वापर युग में सरस्वती में जल प्रवाह कम रह जाने से पर राजस्थान का थार मरुस्थल एवं कच्छ का रन बन गए| द्वापर के अंत में सागरीय हलचल में गुजरात जो सागर में एक द्वीप था उस पर बसी द्वारका समुद्र में समा गयी|
        गंगा-यमुनाके संगम के संबंध में केवल इन्हीं दो नदियों के संगम का वृत्तांतरामायण, महाभारत, कालिदासतथा प्राचीनपुराणोंमें मिलता है। परवर्ती पुराणों तथा हिन्दी आदि भाषाओं के साहित्य में त्रिवेणीका उल्लेख है। कुछ लोगों का मत है कि गंगा-यमुना की संयुक्त धारा का ही नाम सरस्वती हैअन्य लोगों को विचार है कि पहले प्रयाग में संगम स्थल पर एक छोटी-सी नदीआकर मिलती थी जो अब लुप्त हो गई है। 19 वीं शती में, इटली के निवासीमनूचीने प्रयाग के किले की चट्टान से नीले पानी की सरस्वती नदी को निकलते देखा था। यह नदी गंगा-यमुना के संगम में ही मिल जाती थी|
        कालांतर में यह इन सब स्थानों से तिरोहित हो गई, फिर भीलोगों की धारणा है कि प्रयाग में वह अब भी अन्तर्निहित होकर बह रही है| मनुसंहिता से स्पष्ट हैसरस्वती और दृषद्वती के बीच का भूभाग ही ब्रह्मावर्त कहलाता था। ऋग्वेद के नदी सूक्त में सरस्वती का उल्लेख है ----
         इमं मे गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्रि सतोमंसचता परुष्णया,
              असिक्न्या मरूद्वधेवितस्तयार्जीकीये श्रृणुह्या सुषोभया'|
       कुछ मनीषियों का विचार है किऋग्वेद में सरस्वती वस्तुत: मूलरूप में सिंधु का ही पूर्व रूपहै। क्योंकि गंगा, यमुना सरस्वती के अलावा ये सभी पांच नदियाँ आज सिन्धु की सहायक नदियाँ हैं छटवीं द्रषद्वती है, सिन्धु नदी का नाम नहीं है| ऋग्वेद ७.३६.६ में सरस्वती को सप्तसिन्धु नदियों की जननी बताया गया है |  इस प्रकार इसे सात बहनें वाली नदीकहा गया है
         उतानाह प्रिया प्रियासु सप्तास्वसा,सुजुत्सा सरस्वती स्तोभ्याभूत ||
          सातवीं बहन सिन्धु होसकती है जो उस समय तक छोटी नदी रही होगी| सरस्वती के सूखने पर पांच सहायक नदियों से आपलावित होकर आज की बड़ी नदी बनी | सरस्वतीऔर दृषद्वतीपरवर्ती काल में ब्रह्मावर्त की पूर्वी सीमा की नदियां कही गई हैं।
 चित्र3. –सिन्धु, सहायक नदी की भांति सरस्वती में समाहित होते हुए ....( पूर्व-महाभारत काल ) सरस्वती के लुप्त होने पर सिन्धु ने वर्त्तमान रूप लिया ......
           
      प्रथम आर्यावर्त के विषय मेंमनुस्मृति आदि ग्रन्थों में इस प्रकार है -
आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात् ।
तयोरेवान्तर गिर्योरार्थावर्तं विदुर्बुधाः ॥------मनु० अ० श्लोक-२२
         उत्तरमें हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पूर्व और पश्चिम में समुद्र है। इसदेश का व इस भूमि का नाम आर्यावर्त है, क्योंकि आदि सृष्टि से इसमें आर्यलोग निवास करते रहे हैं,
परन्तु इसकी अवधि उत्तर में हिमालय, दक्षिण मेंविन्ध्याचल, पश्चिम में अटक (सिन्धु) और पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी है । इनचारों के बीच में जितना देश है उसको आर्यावर्त कहते हैं और जो इसमें सदासे रहते हैं उनको भी आर्य कहते हैं । इसकी सीमा के विषय में मनु ने लिखा है -
सरस्वती दृषद्वत्योर्देव नद्योर्यदन्तरम् ।
तं देव निर्मितं देशं ब्रह्मावर्त प्रचक्षते ॥----मनु० २।१७॥
        अर्थात् सरस्वती के पश्चिम में, अटक नदी,  पूर्व में, दृषद्वती जो नेपालके पूर्व भाग पहाड़ से निकलकर बंगाल और आसाम के पूर्व और ब्रह्मा के पश्चिमकी ओर होकर दक्षिण के समुद्र में मिली है, जिसको ब्रह्मपुत्र नदी कहतेहैं और जो उत्तर के पहाड़ों से निकल कर दक्षिण के समुद्र की खाड़ी में आमिली है । हिमालय की मध्य रेखा से दक्षिण और पहाड़ों के अन्तर्गत रामेश्वरपर्यन्त, विन्ध्याचल के भीतर जितने देश हैं उन सबको आर्यावर्त इसलिये कहतेहैं कि यह आर्यावर्त वा ब्रह्मवर्त को देव अर्थात् विद्वानों ने बसाया ।विद्वानों और आर्यजनों के निवास करने से आर्यावर्त व ब्रह्मवर्त कहलाया ।
                 सरस्वती एक विशाल नदी थी।पहाड़ों को तोड़ती हुई निकलती थी और मैदानोंसे होती हुई अरब सागर में जाकर विलीन हो जाती थी।मानसरोवर से निकलने वाली सरस्वतीहिमालय को पार करते हुए हरियाणा, पंजाब व राजस्थानसे होकर बहती थी और कच्छ के रण में जाकर अरब सागर में मिलती थी।  उत्तरांचल के रूपण ग्लेशियर से उद्गम के उपरांत यह जलधार के रूप में आदि-बद्री तक बहकर आती थी फिर आगे चली जाती थी|  तब सरस्वती के किनारे बसा राजस्थान भी हरा भरा था।उस समय यमुना, सतलुजव घग्गर इसकी प्रमुख सहायक नदियाँथीं। बाद में सतलुज व यमुना ने भूगर्भीय हलचलों के कारण अपना मार्ग बदल लिया और सरस्वती से दूर हो गईं| महाभारत में सरस्वती नदी को प्लक्षवती, वेद-स्मृति, वेदवती आदि नामों से भीबताया गया ही |पारसियों के धर्मग्रंथ जेंदावस्ता में सरस्वती का नाम हरहवती मिलता है।ऋग्वेद)में सरस्वती का अन्नवती तथा उदकवतीके रूप में वर्णन आया है। यह नदी सर्वदाजल से भरी रहती थी और इसके किनारे अन्न की प्रचुर उत्पत्ति होती थी।सरस्वती आज की गंगा की तरह उस समय की विशालतमनदियों में से एक थी। उत्तर वैदिक काल और महाभारत काल में यह नदी बहुत कुछसूख चुकी थी। तब सरस्वती नदी में पानी बहुत कम था। लेकिन बरसात के मौसममें इसमें पानी आ जाता था। भूगर्भी बदलाव की वजह से सरस्वती नदी का पानीगंगा में चला गया, कई विद्वान मानते हैं कि इसी वजह से गंगा के पानी कीमहिमा हुई, भूचाल आने के कारण जब जमीन ऊपर उठी तो सरस्वती का पानी यमुनामें गिर गया। इसलिएयमुनामें सरस्वती का जल भी प्रवाहित होने लगा। सिर्फ इसीलिए प्रयाग में तीननदियों का संगम माना गया|  
      सरस्वती को सिधु क्षेत्र में नारा ( महान जल प्रवाह व संग्रह...नार =जल ) कहा जाता है = नारायण..= नारा का अयन ... कच्छ क्षेत्र में खिरसर नामक स्थान है =क्षीरसागर ...अर्थात इसी स्थान पर जब गुजरात आदि एक टापू था कच्छ के स्थान पर सागर था ..इसी को नारायण ( नार +अयन =जल निवास ) का निवास क्षीरसागरथा |
------महाभारत के अनुसार--बलराम ने द्वारका से मथुरा तक कीयात्रा सरस्वती नदी से की थी और लड़ाई के बाद यादवों के पार्थिव अवशेषों कोइसमें बहाया गया था यानी तब इस नदी से यात्राएं भी की जा सकती थीं।

-----महाभारत (शल्य पर्व) में सरस्वती नामक 7 नदियों का उल्लेख किया गया है। एक सरस्वती नदी यमुना के साथ बहती हुई गंगा से मिल जाती थी। ब्रजमंडल की अनुश्रुति के अनुसार एक सरस्वती नदी प्राचीन हरियाणा राज्य से ब्रज में आती थी और मथुरा के निकट अंबिका वन में बहकर गोकर्णेश्वर महादेव के समीपवर्ती उस स्थल पर यमुना नदी में मिलती थी जिसे 'सरस्वती संगम घाट'कहा जाता है। सरस्वती नदी और उसके समीप के अंबिका वन का उल्लेख पुराणों में हुआ है। 

      रेगिस्तान में उतथ्य मुनि के शाप से भूगर्भित होकर सरस्वती लुप्तहो गई और पर्वतों पर ही बहने लगी।सरस्वती पश्‍चिम से पूरब की ओर बहती हुई सुदूर पूर्व नैमिषारण्य पहुंची। अपनी 7 धाराओं के साथ सरस्वती कुंज पहुंचने के कारण नैमिषारण्य का वह क्षेत्र 'सप्त सारस्वत'कहलाया। यहां मुनियों के आवाहन करने पर सरस्वती 'अरुणा'नाम से प्रकट हुई। अरुणा सरस्वती की 8वीं धारा बनकर धरती पर उतरी।अरुणा प्रकट होकर कौशिकी (आज की कोसी नदी) से मिल गई।

     -----अपनी पूर्वजा पौराणिकदेवी सरस्वतीके मृत्युलोक में अवतीर्ण होने के स्थान को शोण के निकट वर्णित करते हुए बाण नेशोण कोदंडकारण्यऔरविंध्यसे उद्गत नदी माना है --अर्थात सरस्वती किसी कालमें मानसरोवर से सीधी दक्षिण की ओर बहकर पटना के समीपएवं उससे पहले प्रयाग मेंअवतरित होती थी (गंगा से पहले) यमुना में मिलकर .... |
त्रिवेणी -बंगाल में हुगली के समीप छोटा कस्बा है त्रिवेणी जो हिन्दुओं का प्राचीन धर्मस्थलहै यहाँ भागीरथी नाम से गंगा तीन धाराओं में बंट कर सागर में विलीन होती है |--–सरस्वती, गंगा
व यमुना...इसे मुक्तवेनीकहा जाता है जबकि प्रयाग की सरस्वती, गंगा, यमुना -त्रिवेणी को युक्तवेनीकहा जाता है| अर्थात सरस्वती की उपस्थिति दोनों स्थान पर है| अर्थात कभी सरस्वती स्वतंत्र रूप में या यमुना के साथ बंगाल की खाड़ी मेंगिरती थी |

                               सिंध नदी----
               सिंध नदी उत्तरी भारत की तीन बड़ी नदियों में से एक हैं। इसका उद्गमबृहद् हिमालय में कैलाश से 62.5 मील उत्तर में सेंगेखबबके स्रोतोंमें है। अपने उद्गम से निकलकर तिब्बती पठार की चौड़ी घाटी में से होकर, कश्मीर की सीमा को पारकर, दक्षिण पश्चिम में पाकिस्तान के रेगिस्तान और सिंचित भूभाग में बहती हुई, कराँचीके दक्षिण में अरब सागरमें गिरती है।
         सिंधु की पांच उपनदियांहैं। इनके नाम हैं: वितस्ता, चन्द्रभागा, ईरावती, विपासा एंव शतद्रु. इनमें शतद्रु सबसे बड़ी उपनदी है| वितस्ता (झेलम) नदी के किनारे जम्मू व कश्मीरकी राजधानी श्रीनगरस्थित है।इनके अतिरिक्त गिलगिट, काबुल, स्वात, कुर्रम, टोची, गोमल, संगरआदि अन्य सहायक नदियाँ हैं।
चित्र-४. सिन्धु नदी..नीले रंग में ...
        संस्कृतमें सिन्धु शब्द के दो मुख्य अर्थहैं - सिन्धु नदी का नाम, जो लद्दाखऔर पाकिस्तानसे बहती है.....कोई भी नदी या जलराशि ( समुद्र )
       सिन्धु घाटी सभ्यता (३३००-१७०० ई.पू.) विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में से एक प्रमुख सभ्यता थी।
 साहित्यिक उल्लेख---
 --------सिंधु नदी की महिमा ऋग्वेदमें अनेक स्थानों पर वर्णित है-'त्वंसिधो कुभया गोमतीं क्रुमुमेहत्न्वा सरथं याभिरीयसे...’
------ऋग्वेदमें सिंधु में अन्य नदियों के मिलने की समानता बछड़े से मिलने के लिए आतुर गायों से की गई है----'अभित्वा सिंधो शिशुभिन्नमातरों वाश्रा अर्षन्ति पयसेव धेनव:'
--------सिंधु के नाद को आकाशतक पहुंचता हुआ कहा गया है। जिस प्रकार मेघों से पृथ्वीपर घोर निनाद के साथ वर्षा होती है उसी प्रकार सिंधु दहाड़ते हुए वृषभ की तरह अपने चमकदार जल को उछालती हुई आगे बढ़ती चली जाती है-
'दिवि स्वनो यततेभूग्यो पर्यनन्तं शुष्ममुदियर्तिभानुना।
अभदिव प्रस्तनयन्ति वृष्टय: सिंधुर्यदेति वृषभो न रोरूवत्'|
------ऋग्वेद में सप्त सिंधवका उल्लेख है जिसे अवेस्ता में हप्तहिन्दूकहा गया है। यह सिंधु तथा उसकी पंजाब की छ: अन्य सहायक नदियों (वितस्ता, असिक्नी, परुष्णी, विपाशा, शुतुद्रि, तथा सरस्वती) का संयुक्त नाम है। ऋग्वेद के नदी सूक्त में सरस्वती का उल्लेख है ----
         इमं मे गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्रि सतोमंसचता परुष्णया,
              असिक्न्या मरूद्वधे वितस्तयार्जीकीये श्रृणुह्या सुषोभया'|
         कुछ मनीषियों का विचार है किऋग्वेद में वर्णित सरस्वतीवस्तुत: मूलरूप में सिंधु का ही पूर्व रूपहै। क्योंकि गंगा, यमुना सरस्वती के अलावा ये सभी पांच नदियाँ आज सिन्धु की सहायक नदियाँ हैं छटवीं द्रषद्वती है, सिन्धु नदी का नाम नहीं है| ऋग्वेद ७.३६.६ में सरस्वती को सप्तसिन्धु नदियों की जननी बताया गया है |  इस प्रकार इसे सात बहनें वाली नदीकहा गया है
         उतानाह प्रिया प्रियासु सप्तास्वसा,सुजुत्सा सरस्वती स्तोभ्याभूत ||
          सातवीं बहन सिन्धु होसकती है जो उस समय तक छोटी नदी या पृथक बड़ी नदी के रूप में सरस्वती की सहायक नदी रही होगी| सरस्वती के सूखने पर पांच सहायक नदियों से आप्लावित होकर आज की बड़ी नदी बनी | सरस्वतीऔर दृषद्वतीपरवर्ती काल में ब्रह्मावर्त की पूर्वी सीमा की नदियां कही गई हैं।
---------ऋग्वेद मन्त्र ६:६१:१०,१२; ७:३६:६ में सरस्वती को सात बहनों वालीऔर सिन्धु नदी की माताकहा गया है
-------सिंधु की पश्चिम की ओर की सहायक नदियों-कुभासुवास्तु, कुमु और गोमती का उल्लेख भी ऋग्वेद में है। सिंधु नदी के प्रदेश के निवासी इस नदी को 'सिंध का समुद्र'कहते हैं।
-------ऋग्वेद मन्त्र १०:७५:५ एवं ३:२३:४ के आधार पर -शतुद्री (सतलज), परुशणी (रावी), असिक्नी (चेनाब), वितस्ता, आर्जीकीया (व्यास) एवं सिन्धु, पंजाब की ये सभी नदियाँ सरस्वती की सहायक नदियाँ थीं।
---------कुछ पुराणों मेंऐसा आया है किशिवने अपनी जटा से गंगा को सात धाराओं में परिवर्तित कर दिया, जिनमें तीन (नलिनी, ह्लदिनी एवं पावनी) पूर्व कीओर, तीन (सीता, चक्षुस एवंसिन्धु) पश्चिम की ओरप्रवाहित हुई और सातवीं धाराभागीरथीहुई |
----वाल्मीकि रामायणमेंसिंधु को महानदी की संज्ञा दी गई है----
'सुचक्षुशचैव सीता च, सिंधुश्चैव महानदी, तिस्त्रश्चैता दिशं जग्मु: प्रतीचीं सु दिशं शुभा: '
-----इस प्रसंग में सिंधु को सुचक्षु (=वंक्षु= ओक्सस ) तथा सीता (=तरिम) के साथ गंगाकी पश्चिमी धारा माना गया है।
------महाभारतमेंसिंधु का, गंगा और सरस्वतीके साथ उल्लेखहै,
'नदी पिवन्ति विपुलां गंगा सिंधु सरस्वतीम् गोदावरी नर्मदां च बाहुदां च महानदीम्'
----ऋग्वेद के मन्त्रों में सभी नदियों को स्त्रीलिंग नाम से वर्णन किया गया है केवल सिन्धु को पुल्लिंग संज्ञा दी गयी है---अर्थात सिन्धु का अर्थ समुद्र से है...
रास्ता बदलती नदी :इसनदी ने पूर्व में अपना रास्ता कई बार बदला|तीसरी सदी ईपूके अभिलेख के अनुसार सिन्धु वर्तमान से १३० किमी पूर्व में बहती थी जो आज एक परित्यक्त मार्ग है | सिन्धु तब कच्छ तक जाती थी जो उस समय अरब सागर की खाडी थी पर कच्छ के रन के भर जाने से नदी का मुहाना अब पश्चिम की ओर खिसक गया है। सरस्वती ३०० ईपू में चूरू के निकट बहती थी | चनाब, झेलम, रावी, व्यास सतलज अदि सभी अपने पुराने मार्गों से अत्यंत दूर जा चुकी हैं|
       मूल सिन्धु नदी----को ही ऐतिहासिकमहत्त्व प्राप्त है। इसे भी गंगा की सात धाराओं में एक तथा अग्नि का उत्पत्ति स्थान माना गया है।भागवत के अनुसार मार्कण्डेय को यहीं पर भगवान के दर्शन हुए थे। पुराण में उल्लेख है कि वरुण की सभा में उपासनारत यह नदी हिमालय पहाड़ के पश्चिमी भाग से निकलकर दो हजार किलोमीटर की लम्बी यात्रा तय करती है। अरब सागर में विलीन होते समय इसकी चौड़ाई 6 किलोमीटर हो जाती है। ------यह भी धारणा है कि सरस्वती नदी जो काल के प्रवाह में अदृश्य है, इसी सिन्धु नदी में जा मिली थी।
    दूसरी काली सिंधु अथवा निर्विन्ध्याशुक्तिमान पर्वत से निकलकर विंध्य के बगल से बहकर यमुना में समाहित होती है। रन्तिदेव की राजधानी दशपुर अथवा मंदसौर नगर इसी के तट पर स्थित है। इस पावन नदी का अपना महत्व है।

                        आदि गंगा ---गोमती ----
            गंगा अवतरण से पूर्व धरती की कोख से प्रकट हुई आदि गंगा 'गोमती', पुराणों में महानदी से अलंकृत उत्तर भारतमे बहने वाली एक नदीहै जो प्रदेश के पीलीभीत जिले से प्रकट होकर 960 किमी की यात्रा के बाद  वाराणसीके निकट सैदपुर के, पटना गाँव केपासगंगामेंमिल जाती है गोमतीका उदगम माधोटान्डा के पास होता है।  पुराणों के अनुसार गोमती ब्रह्मर्षि वशिष्ठकी पुत्री है,हिन्दू ग्रन्थ श्रीमदभागवत के अनुसार गोमती भारत की उन पवित्र नदियों में से है जो मोक्ष प्राप्ति का मार्ग हैं। माधोटान्डा पीलीभीतसे लगभग ३० कि. मी. पूर्व में स्थित है। कसबे के मध्य से करीब १ कि. मी. दक्षिण-पश्चिम में एक ताल है जिसे पन्गैली फुल्हर ताल या गोमत तालकहते हैं, वही इस नदी का स्रोत है I इस ताल से यह नदी मात्र एक पतली धारा की तरह बहती है। इसके उपरान्त लगभग २० कि. मी. के सफ़र के बाद इससे एक सहायक नदी गैहाईमिलती है। लगभग १०० कि. मी. के सफ़र के पश्चात यह लखीमपुर खीरीजनपद की मोहम्मदी खीरी तहसील पहुँचती है जहां इसमें सहायक नदियाँ जैसे सुखेता, छोहा तथा आंध्र छोहामिलती हैं और इसके बाद यह एक पूर्ण नदी का रूप ले लेती है। गोमती और गंगा के संगम में प्रसिद्ध मार्कण्डेय महादेव मंदिर स्थित है।लखनऊ, लखीमपुर खेरी, सुल्तानपुर और जौनपुर शहर गोमती के किनारे पर स्थित हैं नदी जौनपुर शहर को दो बराबर भागों मे विभाजित करती है और जौनपुर में व्यापक हो जाती है।
-----------वर्ष 1970 के सेटेलाइट चित्र से इसबात का पता चला है कि गोमती गोमद ताल से नहीं बल्कि 60 किलोमीटर ऊपर हिमालयकी तलहटी से निकली है। गोमती हिमालय से निकली पेलियो चैनल (वह रास्ताजिससे होकर पानी नदी तक पहुंचता है) से रिचार्ज होती थी। 

 चित्र-५..गोमतीनदी 

------------गंगा के पृथ्वी पर अवतरण से पहलेगोमतीजो (पहले उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्र,काबुल में गोमल नाम से बहती थी एवं गंगा की मूलधारा थी) मानसरोवर क्षेत्र से अन्दर ही अन्दर भूगर्भीय प्रवाहित होकर निम्न-हिमालयी क्षेत्र के मध्य भाग में भूगर्भीय जलश्रोत से निकलकर पहले मथुरा के समीप पुनः प्रयाग के समीप यमुना से मिलने लगी | इसीलिये गोमती को आदि-गंगाकहा जाता है | इसीलिये मथुरा में सरस्वती घाट व गंगा घाट आज भी हैं तथा प्रयाग में त्रिवेणी ( गंगा, सरस्वती, यमुना) का संगममाना जाता है|
     गोमती संभवत: विश्व की इकलौती नदी है, जो धरती की कोख से प्रकट हुई। हिमखंडों का इसमें तनिक भी योगदान नहीं है।पीलीभीत जिले के माधौटांडा स्थित गोमती तालाब नदी का उदगम स्थल है। सतयुग का तीर्थ कहा जाने वाला  नैमिषारण्यभी गोमती का महत्व समेटे है। यहां के चक्रतीर्थसे जो लगातार जल का प्रवाह होता है, वह गोमती का नीर है। मान्यता है कि सतयुग में संतों की साधना के लिए आदि गंगा ने चक्रतीर्थ से नाता जोड़ा |
      भारतीय प्राचीन ग्रंथों में आदि-गंगा गोमती को कच्छप वाहिनकहा जाता है।ऐसा इसलिए कि कभी यह नदी कछुओं का प्राकृतिक निवास हुआ करती थी |गोमत ताल में आज भी कछुए इतने अधिक हैंकि जरा सा लाई दाना डालिए कि ये सिरउठाकर भागते चले आते हैं।
    सुनासीरनाथ घाट व देवस्थान शाहजहांपुर में बण्डा के निकट गोमती तट पर स्थित सुनासीरनाथ घाट व देवस्थान है | सुनासीर वैदिक नाम हैजो उत्पादन व कृषि से सम्बंधित देवों इंद्र व मरुत से सम्बंधित है| सुनासीरनाथ महादेव शिव का नाम है यहाँ इंद्र ने शिव को स्थापित किया था | अर्थात यह नदी आदि-गंगा, गंगा से पहले वैदिक काल की है |
       ऋग्वेद केअष्टम और दशम मण्डल में गोमती को सदानीराबताया गया है। शिव महापुराण मेंभगवान आशुतोष ने नर्मदा और गोमती नदियों को अपनी पुत्रियां स्वीकारा है।
 गोमती की मुख्य विशेषताएं---
1.
गोमती प्रदेश की भूगर्भ से प्रवाहित सदानीरा ऐसी महत्वपूर्ण नदी हैजिसका उद्गम प्रदेश से होकर प्रदेश में ही गंगा में संगम हो जाता है।
2. यह नदी गंगा से पूर्व काल की होने के कारण आदि गंगा कहलाती है।
3.
गोमती भूगर्भ से निकलने वाली ऐसी नदी है जो हिमालय की तलहटी, में पैलियोचैनल से निकलती है साथही गोमती में मिलने वाली अन्य 22 धाराएं भी भूगर्भ से ही निकलतीहै। अतःहिमनदों का गोमती के जल में कोई योगदान नहीं है।
 
--------एक गोमती नदी राजस्थान के उदयपुर जिले मेंस्थित छोटी नदी है जो उदयपुर जिले के मध्य भाग चित्तौडगढ के बाड़ीसदरी गाँव की पहाड़ियों से निकलकर दक्षिण की ओर सोम नदी में मिल जाती है |१७ वीं शताब्दी में नदी को जैसमंद झील में परिवर्तितकर दिया गया था |
--------एक गोमती या गोमल नदी अफगानिस्तान में सिन्धु नदी की महत्वपूर्ण सहायक नदी है |

                            ब्रह्मपुत्र नदी -

      ब्रह्मपुत्र --तिब्बत, भारततथाबांग्लादेशसे होकर बहती है। इसका उद्गम तिब्बत के दक्षिण में मानसरोवर केनिकट चेमायुंग दुंग नामक हिमवाह, कैलाश पर्वतके निकटजिमा यॉन्गजॉन्गझीलसे हुआ है। यह मध्य और दक्षिणएशियाकी प्रमुख नदी है| इसका नाम चीनमें या-लू-त्सांग-पू चियांग या यरलुंग ज़ैगंबो जियांग है,तिब्बतमेंयरलुंग त्संगपोया सांपो, अरुणाचल में दिहांग या सियांग तथाअसममें ब्रह्मपुत्र व बंगला देश में जमुना है। भारतीय नदियों के नामस्त्रीलिंग में होते हैं परब्रह्मपुत्रएक अपवाद है।संस्कृतमेंब्रह्मपुत्रका शाब्दिक अर्थब्रह्माका पुत्रहोता है। यह भारत की एकमात्र नदी है जिसे पुल्लिंग संज्ञा से पुकारा जाता है |
           भारत में गारो पहाड़ीके निकट दक्षिण में मुड़ने के बाद ब्रह्मपुत्रबांग्लादेशके मैदानी इलाक़े में प्रवेश करती है। बांग्लादेश में इसके दाएँ तट परतिस्ता नदीइससे मिलती है और उसके बाद यह यमुना नदी के रूप मेंदक्षिण की ओर 241 किलोमीटर लम्बा मार्ग तय करती है, गंगा से संगम से पहले यमुना में बाएँ तट पर विशाल धलेश्वरी नदी व एक उपनदी बूढ़ी गंगा, मेघना नदी में मिलती है। यमुना गंगा से मिलने के बादपद्माके रूप में उनका मिश्रित जल दक्षिण-पूर्व में 121 किलोमीटर की दूरी तक बहता है। 
 चित्र-६.ब्रह्मपुत्र नदी

       गंगाऔर ब्रह्मपुत्र के निचले मार्गों के तटों पर इनक्रियाशील नदियों के मार्गों के हटने और बदलने के कारण धरती में निरंतरक्षरण और रेत का जमाव होता रहता है।यमुनाने अनेक बार मार्ग बदला है और नदी कभी भी लगातार दो वर्षो तक एक जगह परनहीं टिकी।
------ टेथीज़-सागर की विलुप्ति पर, गंगा घाटी एक समुद्री लवणीय जल एवं बालू का इलाका था जो बाद में यमुना, सरस्वती, ब्रह्मपुत्र, गोमती,गंगा अदि नदियों द्वारा लाई गयी मिट्टी द्वारा भर दिया गया और विश्व का सबसे उर्वर मैदानी भाग बना | इस समय अन्य सभी हिमालयी नदियों के जल की भांति ब्रह्मपुत्र भी सीधे दक्षिण की ओर बहकर अरब सागर मेंगिरता था |
         हिमालय के विक्सित होने से पूर्व--- पश्चिमी क्षेत्र में (मानसरोवर क्षेत्र सहित) हलचल से सतपुडा श्रेणी की राजमहल व गारो पर्वत श्रेणियां आपस में जुडी हुईं थी अतः संयुक्त भूमि का पूर्वी भाग अवरुद्ध था ---- ब्रह्मपुत्र नदी उद्गम से पूर्वाभिमुख होकर -मानसरोवर-कैलाश से पूर्व की ओर बहती हुई पूर्व-हिमालय के बंद क्षेत्र से दक्षिण घूमती हुई पूर्व से होकर दक्षिणी मनीपुर, राजमहल, महादेव, सतपुडा आदि पर्वत श्रेणियों के बंद मार्ग के कारण सारे टेथिस सागरीय बालुका मैदान को अपने जल से भरते हुए सारे वर्त्तमान गंगा –यमुना मैदान को पार करती हुआपश्चिम सागर अरब सागर में प्रवाहित होती थी|
-------तत्पश्चात भूगार्भीय हलचलों के कारण उसका प्रवाह यमुना में मिलकर सरस्वती के साथ साथ पश्चिम अरब सागर में गिरने लगा |
------हिमालय के उठने पर ---इन पर्वत श्रेणियों के अलग होने पर पूर्वी मार्ग बना एवं  गंगा के आने पर ब्रह्मपुत्र का प्रवाह पूर्व की ओरहुआ और गंगावतरण से पहले पूर्ववर्ती हुई यमुना के साथ मिलकर, तत्पश्चात स्वतंत्र रूप से, बंगाल की खाड़ी में गिरने लगी| इसीलिये आज भी बँगला देश में ब्रह्मपुत्र नदी गंगा से संगम से पहलेयमुना नदी के नाम से ही दक्षिण की ओर 241 किलोमीटर लम्बा मार्ग तय करती है|

                              यमुना...

       भारत की सर्वाधिक प्राचीन और पवित्र नदियों में गंगा के समकक्ष ही यमुना की गणना की जाती है| यमुना का उद्गम स्थान हिमालय के हिमाच्छादित श्रंग बंदरपुच्छ२०,७३१ऊँचाई फीट ७ से ८ मील उत्तर-पश्चिम में स्थित कालिंद पर्वत है, जिसकेनाम पर यमुना को कालिंदजा अथवा कालिंदीकहा जाता है। अपने उद्गम से आगे कईमील तक विशाल हिमागिरों और हिंममंडित कंदराओं में अप्रकट रुप से बहती हुईतथा पहाड़ी ढलानों पर से अत्यन्त तीव्रतापूर्वक उतरती हुई इसकी धारायमुनोत्तरी पर्वत (२०,७३१ऊँचाई फीट) से प्रकट होती है।
प्राचीन प्रवाह----मैदान में जहाँ इस समय यमुना का प्रवाह है, वहा वह सदा से प्रवाहित नहींहोती रही है। पौराणिक अनुश्रुतियों और ऐतिहासिक उल्लेखों से ज्ञात होता है, यद्यपि यमुना पिछले हजारों वर्षो से विधमान है, तथापि इसका प्रवाह समय समयपर परिवर्तित होतारहा है। अपने सदीर्ध जीवन काल में इसने जितने स्थानवदले है, उनमें से बहुत कम की ही जानकारी हो सकी है।
      बल्लभ सम्प्रदाय के वार्ता साहित्य से ज्ञात होता है कि सारस्वत कल्पमेंयमुना नदी, जमुनावती ग्राम के समीप बहती थी। उस काल में यमुना नदी की दोधाराऐं थी, एक धारा नंदगाँव, वरसाना, संकेत के निकट वहती हुई गोबर्धन मेंजमुनावती पर आती थी और दूसरी धारा पीरधाट से होती हुई गोकुल की ओर चली जातीथी। आगे दानों धाराएँ एक होकर वर्तमान आगरा की ओर बढ़ जाती थी।
      प्राचीन काल में वृन्दाबन में यमुना की कई धाराएँथी, जिनके कारणवह लगभग प्रायद्वीप सा बन गयाथा। उसमें अनेक सुन्दर बनखंड और घास के मैदानथे, जहाँ भगवान् श्री कृष्ण अपने साथी गोप बालकों के गाय चराया करते थे।बटेश्वर सुप्रसिद्ध धार्मिक और ऐतिहासिक स्थलहै, जहाँ ब्रज की सांस्कृतिक सीमा समाप्त होती है। बटेश्वर का प्राचीननाम 'सौरपुर'है, जो भगवान श्री कृष्ण के पितामह शूरसेन की राजधानीथी।
--------बांग्लादेश में ग्वालंदो घाट के निकट गंगा में जब विशाल  ब्रह्मपुत्रशामिल होतीहै तो इस संगम के 241 किलोमीटर पहले तक इसे यमुनाके नाम से ही बुलाया जाता है |
  यमुना सबसे प्राचीन नदी ---यमुना गंगा से पहले थी.....
१-आरंभ में मनु और यमका अस्तित्व अभिन्न था। बाद में मनु को जीवित मनुष्यों का और यम को दूसरे लोक में, मृत मनुष्यों का आदिपुरूष माना गया|
२ ---गंगा व सरस्वती व लक्ष्मी आपसी श्राप के कारण पृथ्वी पर नदियाँ व तुलसी बन कर आयीं परन्तु यमुना पहले ही उपस्थित थी...|
३ –यमुना सूर्य की पुत्री है ..यम की बहन अतः वह वैदिक पूर्व की नदी है गंगा हिमालय पुत्री है अतः वैदिक कालीन नदी है |
४- गोपालन का प्रारम्भ –यमुना के तट पर हुआ जिसका ऋग्वेद में वर्णन है ..
५. भारत कोश के अनुसार -पहिले दो वरसाती नदियाँ 'सरस्वती'और 'कृष्ण गंगा'मथुरा के पश्चिमीभाग में प्रवाहित होकर यमुना में गिरती थीं, जिनकी स्मृति में यमुना केसरस्वती संगम और कृष्ण गंगा नामक धाट हैं। अर्थात कभी सरस्वती व गंगा स्वयं, यमुना की सहायक नदियाँ थीं|
       ---अतः यमुना पूर्व वैदिक काल की नदी है जो..गंगा से प्राचीन होनी चाहिए....|
-------यह कहा भी जाता है कि यहां पहले यमुना ही बहती थी, गंगा बाद में आई।गंगाके आने पर यमुना अर्ध्य लेकर आगे आई, लेकिन गंगा ने उसे स्वीकार नहीं किया।बोली, “तुम मुझसे बड़ी हो। मैं तुम्हारा अर्ध्य लूंगी तो आगे मेरा नाम हीमिट जायगा।मैं तुममें समा जाऊंगी।यह सुनकर यमुना बोली, “बहन, तुम मेरेघर मेहमान बनकर आई हो। मैं ही तुममें लीन होजाऊंगी।चार सौ कोस तकतुम्हारा ही नाम चलेगा, फिर मैं तुमसे अलग हो जाऊंगी।
गंगा ने यह बात मान ली और इस तरह गंगा और यमुना एक-दूसरे के गले मिलीं।गंगा-यमुना
के बारे में और भी कई कथाएं कही जाती हैं। गंगा का जल सफेद, यमुना का नीला। दोनों का रंग अलग-अलग दिखाई देता है। पर संगम से आगे गंगाका जल भी कुछ नीला हो जाता है। कहते हैं कि यहां से नाम गंगा का रह जाता हैऔर रंग यमुना का। सूर्य की कन्या माने जाने के कारण यमुना का पानी कुछगर्म है। साफ भी बहुत है। उसमें कीटाणु भी नहीं होते।------ नक़्शे में भी देखा जाय तो गंगा ही उत्तर से दक्षिणावर्ती होकर यमुना में गिरती है | वस्तुतः आदि प्रागैतिहासिक मूल नदी यमुना ही थी जो पूर्वी सागर, बंगाल की खाड़ी तक जाती थी |

चित्र ७.--गंगा-यमुना संगम—प्रयाग ...
 
   चित्र ८. बंगाल में --यमुनाब्रह्मपुत्र, यमुना के नाम से ...


                                 गंगा –

        भारतकी सबसे महत्त्वपूर्ण नदी गंगाजो भारत और बांग्लादेश में मिलाकर २,५१० किमी की दूरी तय करती हुई उत्तरांचलमें हिमालयसे लेकर बंगाल की खाड़ीके सुंदरवनतकविशाल भू भाग को सींचती है, देश की प्राकृतिक संपदा ही नहीं, जन जन की भावनात्मक आस्था का आधार भी है।१०० फीट (३१ मी) की अधिकतम गहराई वाली यह नदीभारत में पवित्र मानी जाती है तथा इसकी उपासना माँ और देवी के रूप में की जाती है।इसका जल घर में शीशी या प्लास्टिक के डिब्बे आदि में भरकर रख दें तो बरसों तक खराब नहीं होता है और कई तरह की पूजा-पाठ में इसका उपयोग किया जाता है। ऐसी आम धारणा है कि मरते समय व्यक्ति को यह जल पिला दिया जाए तो ‍उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है|
चित्र ९.--मकर वाहिनी गंगा





उद्गम----गंगा का उद्गम दक्षिणी हिमालयमें तिब्बतसीमा के भारतीय हिस्से सेहोता है। इसकी पाँच आरम्भिक धाराओं भागीरथी, अलकनन्दा, मंदाकिनी, धौलीगंगा तथा पिंडरका उद्गम उत्तराखण्डक्षेत्र, जो उत्तर प्रदेशका एक संभाग था (वर्तमान उत्तरांचल राज्य) में होता है। दो प्रमुख धाराओं में बड़ी अलकनन्दा का उद्गम हिमालय के नंदा देवी शिखरसे 48 किलोमीटर दूर तथा दूसरी भागीरथी का उद्गम हिमालय की गंगोत्री नामक हिमनदकेरूप में 3, 050 मीटर की ऊँचाई पर बर्फ़ की गुफ़ा में होता है। वैसे गंगोत्री से 21 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व स्थित गोमुख को गंगा का वास्तविक उद्गम स्थलमाना जाता है। २०० कि॰मी॰ का संकरा पहाड़ी रास्ता तय करके गंगा नदी ऋषिकेशहोते हुए प्रथम बार मैदानों का स्पर्श हरिद्वारमें करती है।


  चित्र १०.---गौमुख—गंगोत्री .. 


चित्र ११.–गंगा नदी ----


      इलाहाबाद (प्रयाग)में इसका संगमयमुनानदी से होता है। यह संगम स्थल हिन्दुओं का एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ है। इसेतीर्थराज प्रयागकहा जाता है। इसके बाद हिन्दू धर्म की प्रमुख मोक्षदायिनीनगरीकाशी (वाराणसी) में गंगा एक वक्र लेती है, जिससे यह यहाँ उत्तरवाहिनीकहलाती है। इस बीच इसमें बहुत-सी सहायक नदियाँ, जैसेसोन, गंडक, घाघरा, कोसीआदि मिल जाती हैं।
-------कोसी की मुख्यधारा अरुणहै जो गोसाई धाम के उत्तर से निकलती है।ब्रह्मपुत्रके बेसिन के दक्षिण से सर्पाकार रूप में अरुण नदी बहती है इसके बादएवरेस्टकेकंचनजंघाशिखरों के बीच से बहती हुई यह दक्षिण की ओर ९० किलोमीटर बहती है इसके बाद कोसी नदी के नाम सेयहशिवालिकको पार करके मैदान में उतरती है तथा बिहार राज्य से बहती हुई गंगा में मिल जाती है।
-----अरुण वास्तव में सरस्वती नदी की धाराहै जबरेगिस्तान में उतथ्य मुनि के शाप से भूगर्भित होकर सरस्वती लुप्तहो गई औरपर्वतों पर ही बहने लगी। पश्‍चिम से पूरब की ओर बहती हुई सुदूरपूर्व नैमिषारण्यपहुंची। अपनी 7 धाराओं के साथ सरस्वती कुंज पहुंचने केकारण नैमिषारण्य का वह क्षेत्र 'सप्त सारस्वत'कहलाया। यहां मुनियों केआवाहन करने पर सरस्वती 'अरुणा'नाम से प्रकट हुई। अरुणा सरस्वती की 8वींधारा बनकर धरती पर उतरी। अरुणा प्रकट होकर कौशिकी (आज की कोसी नदी) से मिलगई।
        पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में स्थानीय आबादी गंगा को पद्माकहकर पुकारती है। बांग्लादेश में ग्वालंदो घाट के निकट गंगा में विशाल ब्रह्मपुत्र शामिल होती है (इन दोनों के संगम के 241 किलोमीटर पहले तक इसे फिर यमुना के नाम सेबुलाया जाता है)। पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबादजिले के गिरिया स्थान के पास गंगा नदी दो शाखाओं में विभाजित हो जातीहै-भागीरथी और पद्मा।मुर्शिदाबाद शहर से हुगली शहर तक गंगा का नामभागीरथीनदी तथा हुगली शहर से मुहाने तक गंगा का नाम हुगली नदीहै। हुगली नदीकोलकाता, हावड़ाहोते हुएसुंदरवनके भारतीय भाग में सागर से संगम करती है। पद्मा मेंब्रह्मपुत्रसे निकली शाखा नदीजमुना नदीएवंमेघना नदीमिलती हैं। अंततः ये ३५० कि॰मी॰ चौड़ेसुंदरवनडेल्टामें जाकरबंगाल की खाड़ीमें सागर-संगम करती है।
       -------गंगा का यह डेल्टा का मैदानी तटहस्तिनापुरभी माना जाता है । यहाँ बूढ़ी गंगाके नाम से नदी बहती हैं। वहाँ भी भक्तगण स्नान करते हैं। वहाँजम्बूद्वीपनामक विश्व प्रसिद्ध रचना बनी हुई है। जिसे देखने के लिए देश - विदेश के पर्यटक प्रतिदिन आते हैं।
        गंगा की इस घाटी में एकऐसी सभ्यता का उद्भव और विकास हुआ जिसका प्राचीनइतिहास अत्यन्त गौरवमयी और वैभवशाली है। जहाँ ज्ञान, धर्म, अध्यात्म वसभ्यता-संस्कृति की ऐसी किरण प्रस्फुटित हुई जिससे न केवल भारत बल्कि समस्तसंसार आलोकित हुआ।पाषाण या प्रस्तर युग का जन्म और विकास यहाँ होने केअनेक साक्ष्य मिले हैं।
---------कुछ पुराणों में ऐसा आया है किशिवने अपनी जटा से गंगा को सात धाराओं में परिवर्तित कर दिया, जिनमें तीन(नलिनी, ह्लदिनी एवं पावनी) पूर्व कीओर, तीन (सीता, चक्षुस एवंसिन्धु) पश्चिमकी ओर प्रवाहित हुई और सातवीं धाराभागीरथीहुई (मत्स्य पुराण 121|38-41; ब्रह्माण्ड पुराण 2|18|39-41 एवं 1|3|65-66)कूर्म पुराण (1|46|30-31) एवंवराह पुराण (अध्याय 82, गद्य में) का कथन है कि गंगा सर्वप्रथम सीता, अलकनंदासुचक्ष एवं भद्रानामक चार विभिन्न धाराओं में बहती हैअलकनंदा दक्षिण कीओर बहती है, भारतवर्ष की ओर आती है और सप्तमुखों में होकर समुद्र मेंगिरती है। 
--------श्रीकृष्ण नेराधाकी पूजा करके रास में उनकी स्थापना की। सरस्वती तथा समस्तदेवताप्रसन्न होकर संगीत में खो गये। चैतन्य होने पर उन्होंने देखा कि राधा औरकृष्ण उनके मध्य नहीं हैं। सब ओर जल ही जल है। सर्वात्म, सर्वव्यापीराधा-कृष्ण ने ही संसारवासियों के उद्धार के लिए जलमयी मूर्ति धारण की थी, वही गोलोक में स्थित गंगा है।
-------यह भी कहा जाता है कि यहां ( भारतवर्ष में ) पहले यमुना ही बहती थी,जो बंगाल की खाड़ी तक जाती थी,  गंगा बाद में आई।ऊपर प्रयाग संगम के नक़्शे में भी देखा जाय तो गंगा ही उत्तर से दक्षिणावर्ती होकर यमुना में गिरती है |
---पुराकाल में ..५ मिलियन वर्ष पूर्व ...पंजाब की सारी नदियों सहित सतलज पूर्व की ओर बहती हुई गंगा में गिरती थी |

                                   नर्मदा

               नर्मदाघाटीधरतीकीप्राचीनतमनदीघाटियोंमेंसेएकहै,भारत की नदियों में नर्मदा का अपना महत्व है। न जाने कितनी भूमि को उसने हरा-भरा बनाया है, और उसके किनारे पर बने तीर्थ न जाने कब से अनगिनत नर-नारियों को प्ररेणा देते रहे हैं, आगे भी देते रहेंगे।
         नर्मदा मध्यप्रदेश और गुजरात राज्य में बहने वाली एक प्रमुख नदी है। यह विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वत श्रेणियों के पूर्वी संधिस्थल पर मध्यप्रदेश के महाकाल पर्वत के अमरकण्टक शिखर से निकलती हैसोहागपुर तहसील में विन्ध्य और सतपुड़ा पहाड़ों में अमरकण्टक नाम का एक छोटा सा गांव है। उसी के पास से नर्मदा एक गोमुख से निकलती है।
       यह विंध्याचल और सतपुड़ा के बीचोबीच पश्चिम दिशा की ओर प्रवाहित होती है | "नर्मदा क्षेत्र में हीकिसी जमाने में यहां पर मेकल, व्यास, भृगु और कपिल आदि ऋषियों ने ओर स्वयं भगवान शंकर ने तपस्या की थी।
      नर्मदा हमारी प्राचीन संस्कृति की ही नैहर नहीं है, बल्कि वह दक्षिण भारत और उत्तर भारत, द्रविड़ संस्कृति और आर्य संस्कृति को जोड़नेवाली एक कड़ी भी है। यही नहीं, हमारे आदिवासी भाइयों की संस्कृति भी इसी के आसपास विकसित हुई
         लोगों की राय है कि भारत की सबसे पुरानी संस्कृति का विकास नर्मदा के किनारेपर ही हुआ। कहते हैं, सारा संसार जब जल में मग्न हो गया, तब जो स्थान बचा था, वह था मार्कण्डेय ऋषि का आश्रम जो नर्मदा के तट पर ऊंकारेश्वरमें है। इसके अलावा मौजूदा महेश्वर के आसपास जो खुदाई हुई है, उसमें पाई गई हजारों वर्ष पुरानी चीजें भी इस बात को सिद्ध करती हैं।नर्मदा के किनारे बहुत से स्थानों पर सुगंधित भस्म के टीले आज भी पायेजाते हैं। इससे यह अनुमान किया जाता है कि यहां बहुत से यज्ञ हुए थे,जिनका उल्लेख पुराणों में भी मिलता है।
            नर्मदा के किनारे गढ़-मण्डलाके अंदर राजेश्वरी का मन्दिर है,जिसमें दूसरे देवताओं के साथ एक मूर्ति सहस्रार्जुन कीहै। कुछ लोगों का कहना है कि यह मण्डला ही प्राचीन माहिष्मतीहै और भगवान शंकराचार्य का मण्डन मिश्र से यहीं पर शास्त्रार्थ हुआथा| प्राचीन काल में ब्रहाजी ने यहां तप किया था। इस स्थान को कपिला तीर्थभी कहते हैं। कपिला तीर्थ पश्चिम में धर्मपुरीहै। स्कंद-पुराणऔर वायु पुराणमें इसे महर्षि दधीचि का आश्रम बताया गया है। वृत्रासुर के वध के लिए इन्द्र ने उनसे हडडियों की मांग की थी और महर्षि ने प्रसन्नता के साथ दे दी थीं।
      मण्डला के पास नर्मदा की धारा सैकड़ों छोटी-छोटी धाराओं में बंट गई है। इसलिए इस स्थान का नाम सहस्रधाराहो गया है। कहते हैं, यहां पर राजा सहस्रबाहु ने अपनी हजार भुजाओं से नर्मदा के प्रवाह को रोकने का प्रयत्न कियाथा। मण्डला के बाद स्थान है भेड़ा-घाटभेड़ा-घाट से थोड़ी दूर पर नर्मदा का एक प्रपात है। इसे धुआंधारकहते हैं। धुआंधार के बाद साढ़े तीन कि.मी. तक नर्मदा का प्रवाह सफेद संगमरमर की चट्रानों के बीच से गुजरता है।
      नर्मदा के दक्षिणी तट पर कुब्जा नदी का संगम है।  इसे रामघाटकहते हैं। अयोध्या के राजा रंतिदेव नेप्राचीन काल में यहां पर महान बिल्व-यज्ञ किया था। इस यज्ञ से एक विशाल ज्योति प्रकट हुई थी। कुछ दूरी पर सूर्य कुंड तीर्थ है। कहा जाता है कि यहां भगवान सूर्य नारायण ने अंधकासुर को मारा था।
       नेमावर और ॐकारेश्वर के बीच धायड़ी कुण्ड नर्मदा का सबसे बड़ा जल-प्रपातहै। ५० फुट की ऊंचाई से यहां नर्मदा का जल एक कुण्ड में गिरता है। जल के साथ-साथ इस कुण्ड में छोटे-बड़े पत्थर भी गिरते रहते हैं। वे घुट-घुटकर सुन्दर,चिकने, चमकीले शिवलिंग बन जाते हैं। सारे देश में शंकर के जितने भी मन्दिर बनते हैं,उनके लिए शिवलिंग अक्सर यहीं से जाते हैं।
      नर्मदा के तट पर बसे ऊंकारेश्वरनामक स्थान प्राकृतिक सौंदर्य, इतिहास और साधना की दृष्टि से रेवा-तीर पर सबसे महान और पवित्र माना जाता है। ऊंकारेश्वर एक प्राचीन तीर्थ है। समीप पहाड़ी पर मार्कण्डेय ऋषि का मन्दिरहै ईक्ष्वाकु वंश के प्रतापी महाराज मांधाता ने यहां भगवान शंकर की आराधना की थीइस पहाड़ी का आकार ॐ जैसा है।  आसपास दोनों तीरों पर बड़ा घना वन है, जिसे सीता का वनकहते हैं। लोगों का कहना है कि वाल्मीकि ऋषि का आश्रम यहीं कहीं था।
      ॐकारेश्वर के समीप एक स्थान में रेणुका माता का मन्दिरहै। कहते हैं, परशुराम ने अपने पिता जमदग्नि ऋषि की आज्ञा से अपनी माता का सिर यहीं काटा था और फिर पिता से वरदान लेकर उन्हें जिला भी दिया था।
            सतपुड़ा की पहाड़ियों में एक जैन तीर्थ है, जिसे वावन गजाजीकहते हैं। एक पहाड़ी की बगल में संपूर्ण चट्रटान में खुदी यह एक विशाल खड़ी मूर्ति कोई ८४ फुट ऊंची है। इसी पहाड़ी के ऊपर एक मन्दिर भी है, जिसकी जैनियों और हिंदुओं में समान रुप से मान्यता है। हिन्दू लोग इसे दत्तात्रेय की पादुकाकहते हैं।जैन इसे मेघनाद और कुंभकर्ण की तपोभूमिमानते हैं। इधर के शिखरों में यह सतपुड़ा का शायद सबसे ऊंचा शिखरहै |
      सतपुड़ा का यह भाग गोवर्धन क्षेत्रभी माना जाताहै। यह निमाड़ी गोवंश का घर बीजारान में विंध्यवासिनी देवी ने,धर्मराज तीर्थ में धर्मराज ने और हिरनफाल में हिरण्याक्ष ने तप किया था। यहां पर वरुण ने भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तप किया था। इस सारे प्रदेश में बड़े-बड़े और दुर्गम वन हैं।
            अनसूयामाई मेंअत्रि ऋषि की आज्ञा से देवी श्री अनसूयाजी ने पुत्र प्राप्ति के लिएतप किया थाऔर उससे प्रसन्न होकर ब्रहा, विष्णु, महेशतीनों देवताओं ने यहीं दत्तात्रेय के रुप में उनका पुत्र होना स्वीकार कर जन्म ग्रहण किया था। कंजेठा में शकुन्तला-पुत्र महाराज भरत ने अनेक यज्ञ किये।
      भड़ोंच में नर्मदा समुद्र में मिल जाती है। यहां पहले एक किला भी था, जिसे सिद्धराज जयसिंह ने बनवाया था। अब तो उसके खण्डहर हैं। भड़ोंच को भृगु-कच्छअथवा भृगु-तीर्थभी कहते हैं। यहां भृगु ऋषि का निवास था। यहीं राजा बलि ने दस अश्वमेध-यज्ञ किये थे | शुक्रतीर्थ में नर्मदा के बीच टापू में एक विशाल बरगद का पेड़ है। शायद यह संसार में सबसे बड़ा वट-वृक्ष है।
    भूगर्भ प्रमाणों के अनुसार हिमालय निर्माण होने के पूर्ववर्तमान भारत पृथ्वी के दक्षिणीगोलार्ध के विशाल द्वीप समूह से जुड़ा हुआ था और पृथ्वी के मध्य रेखा परस्थित था.इसलिए नृतत्वशास्त्रियों और जीवशास्त्रियों का मत है कि इसीद्वीप में सर्वप्रथम जीवाश्म का प्रादुर्भाव हुआ और प्रथम मानव भी इसीद्वीप में विकसित हुआ, जिसमे वर्तमान भारत के नर्मदा घाटियों के क्षेत्र कासमावेश होता है.तत्पश्चात शेष द्वीप समूहों में उसका विस्तार हुआ |
           कुछ विद्वानों के अनुसार हिमालय का निर्माण आज से सात करोड़वर्ष पूर्व हुआ है |  जहां से सतलज, यमुना, गंगा तथा ब्रम्हपुत्र नदियों काउद्गम हुआ है और मध्य भारत का अमरकंटक (अमूरकोट) पर्वत का उद्गम पैंतीसकरोड़ वर्ष पूर्व हुआ है, जहां से नर्मदा (नर-मादा) की जलधारा निकली है.इसलिए नर्मदा नदी के किनारे जिस मानव समुदाय का विकास हुआ, वह निश्चित हीप्राचीन आदि मानवों की सभ्यता थी|
      प्राचीन काल में महाप्रलय होने से  अमरकंटक पर्वत के चारों ओर समुद्र निर्माण हुआ था. अर्थात आदिमानव का उद्गम नर्मदा नदी प्रवाहित होनेके पूर्व ही हो चुका था|
          पुराविदों और भूगर्भशास्त्रियों का मतहै कि अमरकंटक के चारों ओर कभी महाझीलथी| नर्मदा घाटी के पूर्व भाग में बड़ी संख्या में ऐसेवृक्षों के जीवाश्म मिले हैं, जिनका प्राकृतिक संवर्धन सामान्यतः सागर अथवासमुद्री मुहाने के खारे पानी के निकट होते हैं| इसी क्षेत्र में शंख तथासीपों के जीवाश्मों के अवशेष भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं. वर्तमानखोजों ने यह सिद्ध कर दिया है कि आदिमानव नूतनयुग के आरम्भ में तथा उसकेपूर्व नर्मदाघाटी में कभी समुद्र लहराता था.
           जबहिमालयभीनहीथा, तबभीविंयाचलथा, मीठेपानीकीनदीनर्मदासर्वप्रथमअस्तित्वमेंआईथी  सिंधु सभ्यता से पहले भी सभ्यता रही है| आमूरकोट (अमरकंटक) को मानव का उत्पत्ति स्थल कहा जाता है. आमूरकोट नर्मदा नदी के उदगम स्थल में सर्वप्रथम नर व मादा का जन्म हुआ. नर-मादा से नदी का नाम नर्मदा प्रचलित हुआ है.इस प्रकार नर्मदा घाटी की जो आदिम सभ्यता थी, यहाँ से ही लोग उत्तर की ओर क्रमशः बढ़ते गये है|
        हिमालय श्रंखला बनने पर कालांतर में सरस्वती,सिंधु, गंगा, यमुना, ब्रम्हपुत्र एवं अन्य सहायक नदियों ने जन्म लिया| किन्तु नर्मदा व ताप्ती आमूर पर्वतीय क्षेत्र में सदा से बहती रही है|
जब भारतीय भूखण्ड, गोंडवानालेंड, ( भारतीय प्रायद्वीप ) अफ्रिका के पूर्वी तट जंजीबार तट से जुड़ा था तब नर्मदा ताप्ती नदी का प्रदेश भूमध्य रेखा के पास था| वहाँ ये नदियाँ करोड़ो वर्ष पूर्व विक्टोरिया झील मेंसमाहित होती थी तथा अमूरकोट से प्रथम नर-मादा की उत्पत्ति के प्रमाण स्वरूप सर्वाधिक प्राचीन मानव खोपड़ी झील के आसपास ही पाये गए हैं |
यहाँ भू-मध्य रेखीय जलवायु थी करोड़ो वर्षों तक यहाँ अत्यधिक वर्षा होती थी. सघन एवं ऊचे-ऊचें वृक्ष थे. घनघोर जंगल थे. इन जंगलों में विशालकाय शाकाहारी डायनासोर निवास करते थे| करोड़ों वर्ष पूर्व भूमि का सरकाव शुरू हुआ तथा भारतीय प्रायद्वीप, नर्मदा ताप्ती का प्रदेश उत्तर पूर्व की ओर सरक गया. तब आमूरकोट कर्करेखा पर स्थित हो गया. इसी अमूरकोट स्थल के जबलपुर शहर की पहाड़ियों में डायनासोर के अनेक अंडे भू-गर्भवेताओं द्वारा जनवरी २००७में खोज निकाले गये हैं| अंडों का जीवाश्म मिलना प्रमाणित हुआ कि अमूरकोट की सभ्यता प्राचीन है|इन तथ्योंकेआधारपरलगताहैकिमानवसभ्यताकेविकासकेसमयनन्दनवनयाईडनगार्डनयहींकहींपचमढ़ीऔरनर्मदाकेबीचहीरहाहोगा |
         उससमयअरबसागरनेमावरकेआसपासतकएकपतलीशाखाकेरूपमेंभीतरघुसाहुआ | था तबयहांसमुद्री जीव-जंतुओंकीभरमारहुआकरतीथी|उसकालमेंयहांछोटे-बड़ेअसंख्यडायनासोरभीविचरणकियाकरते| नर्मदाघाटीमेंकभीमहागज- स्टेगोडॉन, शुतुरमुर्ग, हिप्पोपोटेमसआदिजीवरहाकरतेथे, जोआजभारतमेंनहींपाएजातेहैं|  इसीप्रकारनीलगिरीयायूकेलिप्टसकावृक्षजिसेहमऑस्ट्रेलियासेआयाविदेशीवृक्षसमझतेहैं, लाखोंवर्षपहलेडिंडोरी (मंडला) केनिकटघुघुवामेंपायाजाताथा | जबलपुरमेंडायनासोरकापहलाजीवाश्मतभीखोजाजाचुकाथा, जबडायनासोरशब्दप्रचलनमेंभीनहींथा|  धारजिलेमेंबागकेनिकटपाडल्यावनग्राममेंडायनासोरके100 सेअधिकअण्डोंकेजीवाश्महालहीमिलेहैं|भयानकटी-रेक्सडायनासोरजैसामांसाहारीविध्वंसकडायनासोरकभीभरूचसेलेकरजबलपुरतकएकछत्रराजकियाकरताथा. वैज्ञानिकोंनेइसेनर्मदाघाटीकाराजसीडायनासोरकहतेहुएइसकानामराजासॉरसनर्मदेन्सिसकियाहै|  सीहोरजिलेकेनर्मदातटीयगाँवहथनौरामेंलगभगपाँचलाखसालपुरानेनर्मदामानवकाजीवाश्ममिलनामोहनजोदड़ोऔरहड़प्पाकीखोजसेभीअधिकमहत्वपूर्ण है |   
 
     चित्र- १२. नर्मदा घाटी में पाए गए टायरेनोसौरस...का जीवाश्म.....
            उपरोक्त के अनुसार – ६ हिमालयी नदियों – सरस्वती आदि एवं भारतीय दक्षिण प्रायद्वीप की नदियाँ नर्मदा आदि ..की आदिकाल, प्रागैतिहासिक काल व वर्त्तमान काल में मूलकथा यह बनती है ----
१.हिमालय से पहले जब भारत अफ्रीका से जुड़ा हुआ थागोंडवाना लेंड –--भूसागरीय प्लेट..उत्तर में  यूरेशियन प्लेट की ओर खिसक कर दोनों के मध्य स्थित सागर—टेथिस सागर को संकरा कर रही थीं | इस प्रकार तिब्बत के पठार की संरचना हुई...सुमेरु, कैलाश आदि क्षेत्र निर्मित हुए..अतः ----उस समय...
--– -- सभी उत्तरी क्षेत्र का जल प्रवाह.. ( जो कालान्तर में सिन्धु-सरस्वती, यमुना, ब्रह्मपुत्र आदि हिमालयी नदियाँ नामित हुईं ). उद्गम –मानसरोवर—कैलाश क्षेत्र से...सीधे दक्षिण की ओर बहती हुई टेथिस सागर में गिरता था .....  अन्य सुमेरु-कैलाश क्षेत्र की वर्त्तमान चीन खंड की ओर की एवं यूरेशिया खंड की ओक्सस आदि नदियाँ पूर्वी महासागर व उत्तरी आर्कटिक सागर में गिरती रही होंगीं अथवा उसी पर्वतीय क्षेत्र की स्थानीय नदियों की भांति झीलों आदि तक बहती रही होंगी |
------भारतीय दक्षिण प्रायद्वीप की नदियाँ -- गोंडवानालेंड स्थित भारतीय भूखण्ड अफ्रिका के पूर्वी तट जंजीबार तट से जुड़ा था, सभी जल प्रवाह ..नदियाँ (नर्मदा आदि नामित ) करोड़ो वर्ष पूर्व विक्टोरिया झील में समाहित होती थी |
     चित्र-13 .. गोंडवाना लेंड में भारत ...
२.भारतीय व यूरोपीय प्लेट की टक्कर पर– भारतीय प्रायद्वीपीय भूखंड के अफ्रीका से टूटकर पूर्वोत्तर की ओर खिसककर उत्तरी यूरेशियन भूखंड की प्लेट से टकराने पर ..
       -----भारतीय भूखंड के अफ्रीका से टूटकर यूरेशियन प्लेट से टकराने पर नर्मदा आदि नामित प्रायद्वीपीय नदियाँ उत्तर में टेथिस सागर में गिरती थीं,  तत्पश्चात ...उत्तरी तट उठ जाने पर पूर्व की ओर बंगाल की खाडी की ओर बहने लगीं |अमूरकोट से प्रथम नर-मादा की उत्पत्ति के प्रमाण स्वरूप सर्वाधिक प्राचीन मानव खोपड़ी झील के आसपास ही पाये गए हैं|  इस प्रकार दक्षिण भारतीय प्रायद्वीप की प्राचीनतम नदियाँ नर्मदा व ताप्ती आमूर पर्वतीय क्षेत्र में सदा से बहती रही है|

3. टेथीज़-सागर की विलुप्ति पर,उसके स्थान पर बने लवणीय वालू के मैदान में– ---- हिमालयी जल प्रवाह....शिवालिक या इंडो-ब्रह्म नामक विशाल नदीके रूप में सम्पूर्ण वालुका क्षेत्र में असम से पंजाब तक प्रवाहित होती थी जो अरब सागर, सिंध की खाड़ी में गिरती थी |
---------तत्पश्चात भू हलचलों के कारण यह जल प्रवाह तीन प्रमुख नदी तंत्र... सरस्वती...यमुना व ब्रह्मपुत्र में विभाजितहोगई---ये आदि मूल नदियाँ सरस्वती-यमुना-ब्रह्मपुत्र– उत्तर से पश्चिम की ओर प्रवाहित होती थीं जो पश्चिम अरबसागर मेंगिरती थीं...
        वर्त्तमान सिन्धु एवं गंगा घाटी एक समुद्री लवणीय जल एवं बालू का इलाका था जो बाद में यमुना, सरस्वती, सिन्धु, ब्रह्मपुत्र, गोमती, गंगा एवं अन्य प्रायद्वीपीय भाग की नदियों द्वारा लाई गयी मिट्टी द्वारा भर दिया गया और विश्व का सबसे उर्वर मैदानी भागबना |





चित्र -१४--भारत का उत्तर-पूर्व की ओर गमन ..
चित्र-१५...भारतीय टेक्टोनिक प्लेट की  यूरेशियन प्लेट से टक्कर ...

४.हिमालय के विक्सित होने से पूर्व---उत्तरमध्य हिमालय के उठ जाने से ब्रह्मपुत्र पूर्ववर्ती बहने लगी |  सतपुडा श्रेणी की  राजमहल व गारो पर्वत श्रेणियां आपस में जुडी हुईं थी अतः संयुक्त भूमि का पूर्वी भाग अवरुद्ध था अतः ब्रह्मपुत्र नदीमानसरोवर-कैलाश से पूर्व की ओर बहती हुई पूर्व-हिमालय के बंद क्षेत्र से दक्षिण घूमती हुई पूर्व से होकर दक्षिणी मनीपुर, राजमहल, महादेव, सतपुडा  आदि पर्वत श्रेणियों के बंद मार्ग के कारण सारे टेथिस सागरीय बालुका मैदान को अपने जल से भरते हुए सारे वर्त्तमान गंगा –यमुना मैदान को पार करती हुआपश्चिम सागर अरब सागर मेंप्रवाहित होने लगी |
------तत्पश्चात पुनः भूगर्भीय हलचलों के कारण ब्रह्मपुत्र का प्रवाह यमुना में मिलकर सरस्वती के साथ साथ पश्चिम अरबसागर में गिरने लगा |
--------हिमालय के उठने पर, पूर्वी मार्ग बनापुनः हिमालय क्षेत्र में हलचलसे इन पर्वत श्रेणियों के अलग होने पर पूर्वी –दक्षिणी मैदान के पर्वतीय मार्ग के खुल जाने पर पूर्वी सागर का निर्माणहुआ –ब्रह्मपुत्र का प्रवाह पूर्व की ओर हुआ और बंगाल की खाड़ी मेंगिरने लगी|
-----सरस्वती व यमुनादोनों का प्रवाह उलटकर पूर्व की ओरहुआ सरस्वती मथुरा के समीप यमुना से मिलकर बहने लगी यमुना लम्बी दूरी पार करके बंगाल की खाड़ी में गिरने लगी जिसमें पूर्वोत्तर से आकर ब्रह्मपुत्रभी समाहित होने लगी | आज के कथित गंगा-यमुना-सरस्वती –सिन्धु मैदानों का निर्माण प्रारम्भ हुआ|  आज भी ब्रह्मपुत्र नदी के बंगाल में बहने वाले 241 किलोमीटर लम्बा मार्गको जमुनाकहा जाता है |
५.गंगा के पृथ्वी पर अवतरण से पहले---
-----गोमतीजो गंगा की मूलधारा थी, मानसरोवर क्षेत्र से अन्दर ही अन्दर प्रवाहित होकर निम्न-हिमालयी क्षेत्र में भूगर्भीय क्षेत्र (आज के गोमत ताल)  के जलश्रोत से निकलकर स्वतंत्र धारा के रूप में बंगाल की खाडी तक जाती थी,
----तत्पश्चात  मथुरा के समीप पुनः प्रयाग के समीप यमुना से मिलने लगी (जो आज उत्तर प्रदेश के पीलीभीत में गोमत ताल से प्रकट होकर वाराणसीके निकट सैदपुर के पास गंगामेंमिल जाती है)|
-----गंगाकेवल स्थानीय नदी की भांति कैलाश-मनसरोवर क्षेत्र में बहती थी, इसीलिए युगों तक गंगा का शिव की जटाओं में फंसे रहना कहा जाता है, जो पुनः शिवजी द्वारा गंगा रूप में प्रवाहित की गयी |  इसीलिये गोमती को आदि-गंगाकहा जाता है | मथुरा में सरस्वती घाट व
गंगा घाट आज भी हैंतथा प्रयाग में त्रिवेणी ( गंगा, सरस्वती, यमुना) का संगममाना जाता है, इसे युक्तवेणी कहा जाता है |
----गंगा की मूल धारा आज भीकलकत्ता के समीप पहुंचकर बंगाल के त्रिवेणीस्थान पर तीन धाराओं में बंटकर- हुगली ( या गंगा ) सरस्वती व यमुना–अलग अलग समुद्र में गिरती हैं, इस स्थान को मुक्तवेनीकहा जाता है |           
           अर्थात कभी तीनों नदिया सरस्वती, यमुना व गोमती आदि-गंगा के नाम रूप मेंतीनों पृथक पृथक धाराओं में पूर्व समुद्र, बंगाल की खाड़ी तक पहुंचतीं थीं |
       गंगाअवतरण के समय छोटी नदी थीजो उत्तर से निकल कर पहले यमुना में मथुरा के समीप सरस्वती के साथ मिलती थी, पुनः आगे खिसक कर प्रयाग में मिलने लगी | हिमालयके पुनः उठने पर यमुना के पश्चिम में सरस्वती की ओर चले जाने के कारण गंगा इस क्षेत्र की प्रमुख नदी हुईऔर बंगाल की खाड़ी तक प्रवाहित होने लगी |
      
६. हिमालय के उठने व अन्य पश्चिम व मध्य क्षेत्रीय हलचलों के फलस्वरूप---
------यमुना पुनः पूर्वाभिमुखहोकर सरस्वती के साथ पश्चिमसागर में प्रवाहित होने लगी, मानसरोवर एवं हिमालय के पश्चिमी क्षेत्र में सतलज आदि विभिन्न नदियों के उद्गम से सरस्वती की सिन्धु सहित ६ बहनों का प्रादुर्भाव हुआ, ब्रह्मपुत्रका शेष पश्चिमी भागदृशवतीके नाम से यमुना-सरस्वती की सहायक नदीहुआ|
चित्र १६. सरस्वती, सिन्धु, सतलज, दृश्वती, यमुना, गंगा.....चित्र-1७.......सरस्वती +सतलज, +यमुना, +दृश्वती ....
३३
 
चित्र १८.—सप्त सिन्धु----सतलज सहित पांच नदियाँ एवं सिन्धु –सरस्वती में समाहित --------  सात बहनें ... 
----- फलस्वरूप सरस्वती एक विशाल महानदी के रूप में बहने लगी| 
-------यही वह काल था जब मानसरोवर-कैलाश क्षेत्र में मानव का जन्म हुआ, जहां से उतरते हुए सरस्वती के किनारे सप्तसिंधु क्षेत्र में प्रथम मानव सभ्यता की उत्पत्ति हुई तथा वैदिक सभ्यता फली-फूली |
      यही समय गंगा के अवतरण का था, जो मानसरोवर क्षेत्र से अपने अंत-भूगर्भीय मार्ग को दक्षिणमुखी एवं बाह्य-भूतलीय करते हुए हिमालय पार कर भारतीय मैदान में उतरी और उत्तर व दक्षिण से प्रवाहित होने वाली विभिन्न नदियों एवं यमुना व सरस्वती के शेष मैदानी जल को सम्मिलित करके बंगाल की खाडी तक प्रवाहित होने लगी |

७. त्रेता के अंतिम काल में-----पुनः उच्च-हिमालयी एवं उत्तर-पश्चम भारतीय भूगर्भीय हलचलों के कारण भूमि उठने से ---
------सरस्वतीका उद्गम मानसरोवर से हटकर यमुनोत्री के निकट, प्लक्ष-प्रसवन होजाने से, सतलज व सहायक नदियों का जल पश्चिम में सिन्धु मेंएवं यमुना-दृश्वती का जल पूर्व में गंगामें गिरजाने के कारण सरस्वती सूखने लगीएवं महाभारत काल तक एक बरसाती नदी की भांति रह गयी, सरस्वती की सहायक सिन्धु नदीआज की एक बड़ी नदी की भांति अस्तित्व में आयी | यमुनापूर्व की ओर बहकर अपनी अन्य सहायक नदियों सहित प्रयाग में गंगा से मिल गयी, एवं महान नदी गंगा प्रादुर्भावहुआ | इस प्रकार आज के विश्व-प्रसिद्ध गंगा-सिन्धु मैदान का निर्माण पूर्णहुआ|

चित्र-१९.. चित्र-२०..
                                                   
          
 
    
लेबल: 

डा रंगनाथ मिश्र सत्य के हाइकू....

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 डा रंगनाथ मिश्र सत्य के हाइकू....


मैं जानता हूँ
तुम्हारी हर चाल
पहचानता हूँ |

कहता नहीं
लेकिन कहना भी
नहीं चाहता |

हंसीं उड़ाते हैं
मेरी सहजता की
वे लगातार

सहजता ही
मनुष्य की होती है
सहज मित्र

 बढजाती है
मनुष्य की आयु भी
प्राणायाम से

जीवन जियो
सच्चाई के साथ ही
सुखी रहोगे

त्याग तपस्या
बेकार न समझें
कभी भी मित्र

चलते रहें
कर्म के पथ पर
सुख मिलेगा

 योग करिए
जीवन सुधारिए
स्वस्थ रहिये 



असहमति प्रकटीकरण व स्वीकरण एवं मधुमयता – मधुला विद्या ---डा श्याम गुप्त ...

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         असहमति प्रकटीकरण व स्वीकरण एवं मधुमयता – मधुला विद्या
       प्रकृति हमें जीवन देती है परन्तु स्वयं प्रकृति शक्तियां अपनी लय में सतत: स्व-नियमानुसार गतिशील रहती हैं, जीवन के अस्तित्व कीचिंता किये बिना। प्रकृति आपदाएं प्राणियों को प्रभावित करती हैं| प्राणीजीना चाहते हैं जिजीवीषा भी प्रकृति की ही देन हैं। अतः वे  अपने अस्तित्व के लिए प्रयत्न करते हैं, प्रकृति को संतुलित या नियमित करने हेतु । मनुष्येतर प्राणी प्रायः विचारवान नहीं होते अतः स्वयं को प्रकृति के अनुरूप ढालकर उसके अनुसार जीवन जीते हैं| मनुष्य विचारशील है अतः वह कभी स्वयं को प्रकृति के अनुरूप ढालकर कभी प्रकृति को स्वयं के अनुसार नियमित करने का उपक्रम करता है |  यही संसार है, जगत है जीवन है | तब प्रश्न उठता है मनुष्य के विचार स्वातंत्रय एवं तदनुसार कर्म स्वातंत्रय का | 
       अस्तित्व बहरूपिया है। बहुत से नाम रूप | कुछ जाने हुए अधिकाँश बिना जानेहुए। प्रत्यक्ष अनुभूति में यह दृष्ट सांसारिक भाव है, लौकिक तत्व  है। परन्तु इसका अंदरूनी तंत्र विराट है। अस्तित्वनियमबद्ध हैं। सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुद्ध आदि ग्रहों कोनियमबद्ध पाया गया है। ये नियम शाश्वत कहे जाते हैं | प्रकृति और जीव के कृतित्व मेंपरस्पर अन्तर्विरोध तो हैं परन्तु सामंजस्य रूप प्रकृति ने प्राणी को कर्मस्वातंत्रय भी दिया है अर्थात मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं है। इस स्वातंत्र्य के उपभोग की दृष्टि भले ही भिन्न-भिन्नहो अपने विचार व परिस्थितियों के अनुसार ।
         लोकतंत्र में विचार स्वातंत्र्य ही उच्चतर मूल्य है। परन्तु विचार प्रकट करनेमें भाषा की अहं भूमिका है और भाषा-वाणी में मधुमयता की। हमारे यहाँ विचारअभिव्यक्ति का स्वातंत्रय है। परन्तु दलतंत्र में सबकी अपनी रीति और अपनी प्रीति के कारण मधुमयता का अभाव है । व्यक्तिगत आरोपों से जनतंत्र को क्षतिहोती है। आरोपों प्रत्यारोपों की मधुमय अभिव्यक्ति कठिन नहीं। सम्मानजनक अभिव्यक्ति के माध्यम से असहमति प्रकटकरना ही सम्मानजनक तरीका है।लेकिन दलतंत्र में परस्पर सम्मान का अभाव है आखिरकार इसका मूल कारण क्या है? हम विश्व के सबसे बड़ेजनतंत्र हैं। तो भी वैचारिक असहमति के प्रकटीकरण में मधुमयता का अभाव क्योंहै?
      ज्ञानसदा से है। उसका लौकिक प्राकट्य सृष्टि रचना के बाद हुआ। ऋग्वेद निस्संदेह विश्वका प्रथम ज्ञानोदयएवं ज्ञान अभिलेख है लेकिन आनंद प्राप्ति की मधुविद्या उसकेबहुत पहले सेहै। शंकराचार्य के अनुसार ...यह मधु ज्ञानहिरण्यगर्भ ने विराट प्रजापति को सुनाया था। उसने मनु को बताया और मनु नेइक्ष्वाकु को ...| मधुमयता की अनुभूमि आसान नहीं। सुनना या पढ़ना तो उधार का ज्ञान होता है। अनुभूतिअपनी है। गीता के श्रीकृष्ण ने यही ज्ञान परम्परा दोहराते हुए अर्जुन सेकहा कि काल के प्रभाव में यह ज्ञान नष्ट हो गया।आधुनिक काल में भी यहीस्थिति है।
      दलतंत्र में मधुमयता क्यों नहीं है?  वस्तुतः हम अपनी संस्कृति से प्रेरित नहीं हैं।भारतीयपरंपरा मधुमय है। समूचा वैदिक साहित्य मधुरस से लबालब है। प्राचीन भारत मेंमधुमयता के बोध को मधुविद्या कहागया है। छान्दोग्य उपनिषद् में मधुविद्या का उल्लेखहै।  असौ आदित्यो देवमधु। ....यह  अपनी-अपनी अनुभूति है। वैदिक पूर्वजो का हृदय मधुमय है। उन्हेंसूर्य किरणें भी मधुमय प्रतीति होती हैं। रसौ वै वेद ..वेद रसों के रस हैं, अमृतों का अमृत हैं। कैसी प्यारी मधुमय अभिव्यक्ति है। अमृत सम्पूर्णता के साथ सदा अस्तित्वमान रहनेकी आन्तरिक अनुभूति है। वेद-रस उन्हीं अमृतों का अमृतहैं।
          वृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी कोमधुमयता का मूलतत्वसमझाया,-इयं पृथ्वी सर्वेषा भूतानां मध्वस्यै पृथिव्यै सर्वाणि भूतानिमधु- यह पृथ्वी सभी भूतों (समस्त अस्तित्ववान मूल तत्वों) का मधु है और सब भूत इस पृथ्वी केमधु।धर्म और सत्य समस्त भूतों कामधु है, समस्त भूत इस सत्य व धर्म के मधु है।सर्वत्र मधु की अनुभूति राष्ट्र व विश्व को मधुमय बनाने की अभीप्सा है।यह विद्या हमारे पूर्वजों की परम आकांक्षा है। यह भौतिक जगत्का माधुर्य है, दर्शन में परम सत्य है, और अंततः सम्पूर्णता है।
                     मनुष्य ही विराट जग की मूल इकाई है,मधु जगत् की मधु इकाई है।मनुष्य को मधुमय होना चाहिए। इसकाज्ञान वैदिक काल से भी प्राचीन है।
       सर्वात्मलयता वसंवेदनशीलता व सहिष्णुता  गहन आत्मीय भाव है।तब पत्थर भी प्राणवान दिखाई पड़ते हैंऔरनदियां भी, सभी प्राणी अपने समान । दलतंत्र की नीति में हम सबकी संवेदनाएं क्यों नहींजगतीं, सहिष्णुता कहाँ चली जाती है ।..हम क्यों भूल जाते हैं –
सर्वेन सुखिना सन्तु, सर्वे सन्तु निरामया ,
सर्वे पश्यन्तु भद्राणि, मा कश्चिद् दुखभाग्भवेत |
      -----यहाँ सहिष्णुता या असहिष्णुता का कोई अभिप्रायः नहीं रह जाता |
   
        ऋग्वैदिक ऋषि निवेदन करते हैं -अस्ययोजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार। हम सबविष भाग को सूर्य किरणों के पास भेजते है। मधुविद्या विष को अमृत बनाती है। मधुविद्या अमरत्व है।सूर्य प्रत्यक्ष देव हैं। वे जगत् का प्राण हैं। अमृत और विष उन्हीं का है। हम सब प्राणी, वनस्पतियां, औषधियां और सभी जीव भी उन्हीं के। वे इस विष से प्रभावित नहीं होते। विष और अमृत वस्तुतः मृत्यु और अमरत्वके प्रतीक हैं| मृत्यु सत्य है अमृतत्व भी सत्य है। मृत्यु और अमरत्वविरोधी नहीं हैं। दोनो साथ हैं।
       राजनीति को भी मधुमयहोना चाहिए।वह राष्ट्र निर्माण का मधु है |शासक सत्ता सूर्य का प्रतीक है | जैसे विष सत्य है, अस्तित्व में है, वैसे ही अमृत भी सत्यहै, अस्तित्व में है।वैसे ही राजनीति में पक्ष सत्य है, विपक्ष भी सत्य है। सहमतिका मूल्य है और असहमति का भी। असहमति के प्रकटीकरण व स्वीकरण में अमृत भावचाहिए, मधु भाव । यथा ऋग्वेद का अंतिम मन्त्र ---
    “ समानी अकूती समानी हृदयानि वा
     समामस्तु वो मनो यथा वै सुसहामती |”  
...तथा ..
स्वामी बल्लभाचार्य कृत मधुराष्टकंसे...
     ‘वचनंमधुरंचरितंमधुरंवसनंमधुरंवलितंमधुरम्
     चलितंमधुरंभ्रमितंमधुरंमधुराधिपतेरखिलंमधुरम्||’

कुछ शायरी की बात होजाए- की समीक्षा .....डा श्याम गुप्त

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                                     ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


     डा श्याम गुप्त की पुस्तक --कुछ शायरी की बात होजाए- की समीक्षा


श्याम मधुशाला ----- डा श्याम गुप्त

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श्याम मधुशाला -----पेज के चित्र पर क्लिक करें ---


'श्याम मधुशाला -2'
'श्याम मधुशाला.....१'
'श्याम मधुशाला-४''श्याम मधुशाला-3'

'श्याम मधुशाला-अंतिम पृष्ठ'







समीक्षा – अनुभूतियाँ गीत संग्रह....डा श्याम गुप्त

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समीक्षा – अनुभूतियाँ गीत संग्रह....डा श्याम गुप्त

                               


समीक्षा – अनुभूतियाँ

कृति—अनुभूतियाँ- गीत संग्रह ..रचनाकार –डा ब्रजेश कुमार मिश्र ..प्रकाशन-- नीहारिकांजलि प्रकाशन, कानपुर ...प्रकाशन वर्ष –२०१५ ई.....मूल्य ..२५०/-रु....समीक्षक –डा श्यामगुप्त ....


 
------- डा ब्रजेश कुमार मिश्र मेरे चिकित्सा विद्यालय के सहपाठी हैं | उन्होंने विशेषज्ञता हेतु काय-चिकित्सा को चुना और मैंने शल्य-चिकित्सा को | वे भावुक, सुकोमल ह्रदय एवं संवेदनशील व्यक्तित्व हैं| काव्य व संगीत में उन्हें प्रारम्भ से ही रूचि है | अपने बैच के पूर्व-छात्र सम्मिलन समारोहों में उन्हें हारमोनियम पर मनोयोग से संगीत प्रस्तुत करते हुए देखकर सुखद आनंद की अनुभूति होती है | आगरा नगर का निवासी होने के कारण अनुभूतियों के आत्म कथ्य..”भाव सुमन...” में उनके द्वारा वर्णित आगरा नगर का सुकोमल भावपूर्ण सौन्दर्य को मैंने भी जिया है| यह डा ब्रजेश के संवेदनशील व कोमल ह्रदय एवं काव्य प्रतिभा का संक्षिप्त परिचय है | ऐसे सुकोमल व्यक्तित्व द्वारा रचित गीत भाव-प्रधान, संगीत-प्रधान व सुकोमल होने ही चाहिए | हम लोगों के कैशोर्य व युवा काल में जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पन्त, मैथिलीशरण गुप्त महानायकों की भाँति सभी काव्यप्रेमी जनों के मन पर छाये हुए थे | यह मूलतः छायावादी गीतों का युग था | अतः डा मिश्र के गीतों में स्वतः ही छायावादी गीत शैली का प्रभाव परिलक्षित होता है | यह स्वाभाविक है- “महाजनाः येन गतो स पन्था” |
-------- एक चिकित्सक, व्यक्ति व समाज की भावनाओं, संवेदनाओं व अपेक्षाओं को अपेक्षाकृत अधिक निकट से परखता है, जान पाता है एवं ह्रदय तल की गहराई से अनुभव कर पाता है| गीत ह्रदय से निसृत होते हैं| संवेदनाओं, अनुभूतियों व भावनाओं के ज्वार जब उमड़ते हैं तो गीत निर्झर प्रवहमान होते हैं--

“दिल के उमड़े भावों को जब,
रोक नहीं पाए,
भाव बने शब्दों की भाषा
रची कहानी है |” .(डा श्याम गुप्त के गीत..’गीत क्या होते हैं’..से )

------ भावुक व्यक्ति स्मृतियों में जीने वाले होते हैं, प्रीति-स्मृतियाँ जीवन की सुकोमलतम स्मृतियाँ होती हैं, संयोग की हों या वियोग की | डा मिश्र ने स्वयं ही कहा है –
“प्रेम के उद्गीत गाना चाहता हूँ ..” (प्रीति के मृदु गीत ..से ) तथा
“उर वीणा में प्रिय गूँज तुम्हारी पायल की ..” (पृष्ठ ६५ )
------- डा मिश्र की कृति ‘अनुभूतियाँ’ के गीत मूलतः छायावादी हैं| पीड़ा व विरह इनका मूल विषय भाव है | पीड़ा जो प्रकृति वर्णन, वसंत, प्रेम, मिलन, विरह, श्रृंगार, स्मृतियाँ, पायल की गूँज व सामाजिक सरोकार के गीतों को भी आच्छादित किये हुए है | कृति के प्रारम्भ के जो तीन मुक्तक हैं, कवि के कृतित्व के सारभाव हैं |..कवि के अनुसार –
“मृदुल उर की व्यंजना का प्रस्फुटन हैं..” | -----पीड़ा प्रीति का उत्कृष्ट भाव है | कवि का कथन है –--
“ये गीत नहीं मेरे अंतर की आहें हैं |” ...तथा..

“उर से जो छलकीं प्रीति कहो,
इनको मत केवल गीत कहो |”

------ प्रस्तुत कृति एसी ही संवेदनाओं के उदगार हैं | जीवन राह पर चलते चलते मनुष्य सुख-दुःख, सफलता-असफलता, अधूरी कामनाओं, संयोग-वियोग, प्रेम-विरह से दो-चार होता है| उन्हीं अनुभूतियों, संवेदनाओं, भावनाओं का भाव-शब्द प्राकट्य है प्रस्तुत कृति, जिसमें भावपक्ष तो उत्कृष्ट है ही कलापक्ष भी सफल, सुगठित, सुष्ठु व श्रेष्ठ
है | यह वस्तुतः लम्बे समय तक मौन साधनारत व्यक्तित्व की मौन पीड़ा, विरह व आप्लावित हुई संवेदनाओं का मुखरित होना है | पीड़ा का उद्रेक जब ह्रदय में आप्लावित होता है तो कवि कह उठता है ...
“झिलमिला कर अश्रुकण कुछ /
व्यथा चुप चुप कह गए |” (पृष्ठ ११८ )...
स्मृतियाँ कवि के जीवन का महत्वपूर्ण भाग है........
”जिनके नेहिल सुस्मरण मुझे, पल पल हुलसाते रहते हैं|”
----- परन्तु पीड़ा व विरह के मुखरित गीतों में भी नैराश्य नहीं है अपितु आशा की भोर का आव्हान है ---
“सबल शुभ संकल्प लाओ /
भोर के तुम गीत गाओ | ( भोर के गीत से..)
और जब यह पीड़ा स्व से पर की ओर, सामाजिक पीड़ा में, व्यष्टि से समष्टि की ओर उन्मुख होती है, परमार्थ सापेक्ष होती है तो कवि गा उठता है ---
“हों परिवर्तन आमूल चूल.. ./
निकलें जीवन के सभी शूल |
मृदु प्रेम जगे सब बैर भूल ...\ ..
जागे नूतन स्वर्णिम विहान .”..(पृष्ठ ३४..) ....तथा कवि दीप ही बना रहना चाहता है ...
”.दीप लघु प्रतिविम्ब मेरा /
दर्द से अनुबंध मेरा ..” (पृष्ठ ४०..) |

----- यह साहित्य का सामाजिक सरोकार रूप है | यह छायावादी काव्य की विशेषता है | यह साहित्य है, यही कवित्व है | जो काव्य का उद्देश्य है |

--------ज्ञान का आडम्बर सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ा हुआ है | अज्ञानी रो सकता है, परन्तु समाज के ऊंचे पायदान पर खडा व्यक्ति चाहकर भी नहीं रो सकता | सबल, सत्यनिष्ठ, एकाकी, अंतर्मुखी व्यक्ति के लिए पीड़ा व्यक्त करने का माध्यम गीत व साहित्य ही होजाता है ..
“टुकडे टुकडे दर्पण उर का /
टप टप टप टप रजनी रोई /
मन की पीर न जाने कोई ..|(पृष्ठ ३७..)
------अपनों द्वारा प्रदत्त पीड़ा अधिक कष्टदायी होती है, नैराश्य भी उत्पन्न होता ही है ..
“आश्रयी अहि ने डसा है /
होगये विश्वास खंडित “(पृष्ठ १०६)|
------ संयोग हो या वियोग, प्रकृति वर्णन तो अवश्यम्भावी है...
”अवश मन उष्मित शिराएं देह की /
रच रहा फागुन ऋचाएं नेह की .(पृष्ठ ८९) |
------फूले कचनार, लो फागुन आया रे, घिर घिर बरसो बदरा कारे ...में प्रकृति का सौन्दर्यमय वर्णन है |

------- जीवन दर्शन को भी सुचारू रूप से व्यक्त किया गया है ..
”कुछ स्वप्न अधूरे रहते हैं ..” एवं
“ जीवन की अंधी गलियों में ../
जाने कितने स्वप्न खोगये ..|”..(पृष्ठ ५५)


-------परन्तु कवि निसंकोच सहनशीलता व धैर्य का वरण करता है..
क्यों याद करें जो मिला नहीं/
सोचें क्या हमने पाया है..(प्र-९७)|

------ कवि के अनुसार गीत विश्रांति कारक भी हैं..
”होरहा जीवन हलाहल../
पर अधर पर गीत फिर भी |
------जीवन संघर्ष में कभी कभी नैराश्य भी आता ही है परन्तु कर्म-पथ पर चलते चलते कवि को पता ही नहीं चलता कि—
“जीवन पथ के संघर्षों में /
जाने कब वह शाम होगई |”.....और यह यात्रा अविराम है ..
“मैं राही निर्जन पथ का रे ../
चलना ही है अब जीवन ..|”

------ इस विश्व को सत्यं शिवं सुन्दरं बनाना ही साहित्य का उद्देश्य है ...अतः कवि कह उठता है –
“तमस में भटके पगों को,
सत्य-उज्जवल पथ दिखाने |
शिवं के शुभ गीत गाना चाहता हूँ |”...(प्रीति के मृदु गीत से )
------- प्रस्तुत कृति मूलतः भाव-अनुभूतिजन्य गीत-कृति है अतः कलापक्ष को सप्रयास नहीं सजाया गया है अपितु वह कलात्मक गुणों से स्वतः ही शोभायमान है, सशक्त है| भाषा शुद्ध सरल साहित्यिक हिन्दी है जो कहीं कहीं संस्कृतनिष्ठ है | शब्दावली सुगठित सरल सुग्राह्य है छायावादी शैली के बावजूद दुरूह नहीं | कविवर जयशंकर प्रसाद जैसी प्रसाद गुण युक्त कोमलकांत पदावली में मूलतः अभिधात्मक कथ्य शैली का प्रयोग किया गया है | आवश्यकतानुसार लक्षणा व व्यंजना का भी विम्ब प्रधान प्रयोग है यथा---

“टप टप टप टप नदिया रोई, मन की पीर न जाने कोइ |...अभिधात्मक शैली ..

“अंग अंग भर उमंग, पुरवा के संग अनंग |
खोल रहा ह्रदय बन्ध, बिखरा मृदु मलय गंध |.....लक्षणा ...|

व्यंजना के साथ एक विम्ब प्रस्तुत है –
“मलय झकोरा लगा लपट सा”.....
.”रच रहा फागुन ऋचाएं नेह की ..”
               गीत मूलतः १६ मात्रिक एवं १४ मात्रिक चतुष्पदियों में रचित हैं | कुछ गीतों में पंचपदी एवं २० व २२ मात्रिक छंद भी प्रस्तुत किये गए हैं |
            गीतों में मूलतः विरह श्रृंगार का रसोद्रेक सर्वत्र विकिरित है ....
“ बिना तुम्हारे रोते उर को,
कैसे कोइ धीर बंधाये |
तुम न आये | “
------परन्तु संयोग के बिना विरह का अस्तित्व कहाँ अतः संयोग श्रृंगार, नख-शिख वर्णन एवं प्रकृति वर्णन, के भी यथानुसार सुन्दर विम्ब प्रस्तुत हुए हैं-
“नील शरशय्या पर अभिराम /
कुमुदिनी का वैभव विस्तार |.”.

“पीत चुनरिया सरसों पहने, हरा भरा घाघरा मखमली |” ...एवं ..

“वाणी में वीणा का गुंजन,
गति में सुरवाला का नर्तन |
उर में दहके मादक मधुवन,
मधुमास रहे जिसमें हर क्षण |”
 
विविध अलंकारों की छटा भी देखते ही बनती है ...लगभग सभी मुख्य अलंकारों का समुचित प्रयोग हुआ है- .
“घन अन्धकार का बक्ष चीर,
चमके चपला का रज़त चीर” ..एवं
“अर्थ के राज्य में नेह का अर्थ क्या” ...में चीर एवं अर्थ में यमक का सौन्दर्य है |

मालोपमा की छटा देखिये ... जिसमें अनुप्रास, रूपक के विम्ब की छटा भी उपस्थित है ...
“मदिर मधुमय मृदु सरस मधुमास तुम हो,
प्रथम पावन प्यार का उल्लास तुम हो |
मलय सुरभित उल्लसित वातास तुम हो,
स्वाति जलकण निहित चातक आस तुम हो | “

“गहन सुधि के सुभग सुकोमल कर ...” में मानवीकरण है |

ध्वन्यात्मक व अनुप्रास, का समन्वित उदाहरण ..”छल छल छल छल नदिया रोई ..” में दृष्टव्य है |

“है घट रहा चिर नेह स्तर, क्षीण होता वर्तिका स्वर
धूम रेखा बन बिखरता, व्योम में तनु गात नश्वर |”.....में नेह, वर्तिका, दीप, शरीर के विम्बों में शब्द व अर्थ श्लेष का सुन्दर समायोजन हुआ है |

              आलोचनात्मक दृष्टि के बिना कोई भी समीक्षा अधूरी ही रहेगी | पुस्तक के कवर फ्लैप पर दोनों वक्तव्य अत्यंत छोटे अक्षरों में हैं सुदृश्य नहीं हैं| दोनों विद्वान् साहित्यकारों द्वारा लिखित भूमिकाएं अनावश्यक दीर्घ कलेवर की हैं जो कृति की भूमिका की अपेक्षा समीक्षा अधिक प्रतीत होती हैं जिनमें कृति व कृतिकार के बारे में कथ्य सुस्पष्ट नहीं होपाते |
             संक्षेप में डा ब्रजेश कुमार मिश्र द्वारा रचित ‘अनुभूतियाँ’ कृति चारुता के साथ रचित ह्रदय की अनुभूतियों का सूक्ष्म व कलात्मक अंकन है जिसके लिए रचनाकार बधाई के पात्र हैं |

१०-१२-२०१५ ई. --- डा श्याम गुप्त
सुश्यानिदी, के-३४८, आशियाना मो. ९४१५१५६४६४.
लखनऊ -२२६०१२
Drshyam Gupta's photo.

‘सुख का सूरज’ को पढ़ने का अनुभव (--डॉ. सारिका मुकेश)

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आदरणीय बाबू जी
सादर नमस्कार!
अभी-अभी ब्लॉग पर आपकी पुस्तक 'सुख का सूरजपर निम्न विचार प्रस्तुत किए हैंआपको उसकी प्रतिलिपि नीचे भेज रहे हैं! कृपया अपनी राय देना कि आपको कैसे लगे?
विलम्ब के लिए क्षमा करेंगे!

शेष शुभ!
सादर/सप्रेम
सारिका मुकेश 

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जीवन की धूप-छाँव से गुजरते हुए
ऊसर जमीन में हमउपहार बो रहे हैं
हम गीत  और ग़ज़ल के उद्गार ढो रहे हैं !! 
***
प्रीत और मनुहार लेकर आ रहे हैं !
हम हृदय में प्यार लेकर आ रहे हैं !! 
***
      हिंदी ब्लॉग जगत् अर्थात् हिंदी चिट्ठा जगत में जनवरी 2009 से प्रतिदिन अपनी उपस्थित दर्ज़ कराने वाले अनेकानेक लोगों के परम प्रिय डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक’ की पुस्तक सुख का सूरज को पढ़ने का अनुभव कुछ ऐसा ही है जैसे कि जाड़े के मौसम में कई दिनों तक कोहरा छाए रहने के उपरांत आपको एकाएक ही एक दिन कुनकुनी धूप में देरों तक बैठने का सुख मिल जाए...
 "वो आये हैं मन के द्वारे 
इक अरसे के बाद 
महक उठे सूने गलियारे 
                     इक अरसे के बाद..."                  
***
       इस पुस्तक की भूमिका लिखने का दायित्व श्री सिद्धेश्वर सिंह जी ने शानदार ढंग से बखूबी निभाया है! उन्होंने लेखक और पुस्तक की विषय-वस्तुदोनों के साथ ही पूर्ण रूप से न्याय किया हैइसके लिए वो अवश्य ही साधुवाद के पात्र हैं!
"शिष्ट मधुर व्यवहारबहुत अच्छा लगता है
सपनों का  संसार बहुत अच्छा लगता है..." 
***
       मधुर भाषीशिष्ट व्यवहार में कुशल और आत्मीयता से भरपूर डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक’ जी व्यक्तिगत तौर पर छंदबद्ध और गेय रचनाओं को ही कविता मानते हैं! छन्दमुक्त कविताओं को पढ़ना भी उन्हें अच्छा तो ज़रूर लगता है पर यह उसे  आज भी गद्य ही मानते हैं! शायद यही कारण है की इनकी सभी कविताएँ छन्दबद्ध और गेय शैली में लिखी गई हैं पर इसके लिए कहीं भी यह जोड़-तोड़ करते दिखाई नहीं देते अपितु यह सब स्वत: होता चला जाता है मानों यह सब कुछ किसी अदृश्य शक्ति के द्वारा रचा जा रहा है और वो तो बस माध्यम मात्र हैं! अगर हम गौर करें तो सच्चे अर्थों में यही तो हमारे जीवन का सार भी है: हम सब निमित्त मात्र ही तो हैं कर्ता तो वो’ ही हैपर हम जीवन भर इस रहस्य को या तो समझते नहीं या मैं’ के अहंकार से बाहर नहीं आ पाते परंतु डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक’ जी यह बात स्वयं स्वीकार करते हुए लिखते हैं:
"नहीं जानता कैसे बन जाते हैंमुझसे गीत ग़ज़ल 
ना जाने मन के नभ परकब छा जाते गहरे बादल..." 
       माँ सरस्वती अपना वरद हस्त हर किसी पर नहीं रखतीं परंतु डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक’ जी सौभाग्य से माँ सरस्वती के कृपा-पात्र बन सकेइसके लिए उनका आभार प्रगट करते हुए कहते हैं:
"जिन देवी की कृपा हुई हैउनका करता हूँ वन्दन 
सरस्वती माता का करताकोटि-कोटि हूँ अभिनंदन...!!"   
       डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक’ जी ने गाँव/देहात/कस्बों से लेकर शहर और महानगर तक को स्वयं बहुत करीब से देखा और जाना हैइसीलिए उनकी कविताएँ ज़मीनी तौर पर जब उनका चित्रण करती हैं तो सब एकदम सजीव हो उठता है! उन्होंने अपने घर के वातानुकूलित कमरे में बंद होकर भूखबेबसीलाचारीगरीबीसामाजिक विषमताओं आदि विषयों पर कविताएँ  नहीं लिखी हैं बल्कि उन्हें स्वयं करीब से देखा है और ऐसा लगता है कि उन्होंने  किसी हद तक अंतर्मन में कहीं न कहीं उसे भोगा भी है! गाँव से उन्हें बेहद आत्मीयता है ! शहर में कई बरस रहने के बावजूद भी उन्हें रह-रहकर जब-तब गाँव की याद आती है और वो उन्हें याद करते हुए नहीं थकतेआप यह खुद ही देख लीजिए: 
"गाँव की गलियाँचौबारे
याद बहुत आते हैं
कच्चे घर और ठाकुरद्वारे
याद बहुत आते हैं..." 
***
"भोर हुई चिड़ियाँ भी बोली 
किन्तु शहर अब भी अलसाया 
शीतल जल के बदले कर  में 
गर्म चाय का प्याला आया 
खेत-अखाड़े हरे सिंघाड़े 
याद बहुत आते हैं..." 
***
      इसके अतिरक्त भी और ना जाने कितना ही कुछ ऐसा है जो गाँव से शहर आते वक़्त वहीं पर छूट गया पर स्मृति-कोश में अभी तक ताज़ा बना हुआ है ! आज भी वो मटकी का ठंडा पानीनदिया-नालेसंगी-ग्वालेचूल्हा-चौकामक्के की रोटीगौरी गईयामिट्ठू भैयाबूढ़ा बरगदकाका अंगद मन से कहाँ विदा ले सके हैं ! गाँव की याद करके तो मन में आज भी एक कसक-सी उठती है और अक्सर यही लगता है:
"छोड़ा गाँवशहर में आया
आलीशान भवन बनवाया
मिली नहीं शीतल-सी छाया
नाहक ही सुख चैन गंवाया...." 
***
         एक तरफ़ गाँव की पुरानी स्मृतियाँ हैं और दूसरी ओर आज के दौर का  भयावह सच ! वैश्वीकरण के इस युग में आज मानवीय मूल्यों/संबंधों में खोखलापननकलीपनबनावट ने अतिक्रमण कर लिया है और पैसा ही सब कुछ होता जा रहा है! आज हम सब गलाकाट प्रतियोगिता में शामिल हो चुके हैं ! नामशौहरतपुरस्कारसम्मान और पैसे के लिए हम अंधी दौड़ में लगे हैं,उसके लिए चाहे किसी का भी गला काटना पड़ेचाहे उन कंधों को भी तोड़ना पड़े जिन पर हम खड़े होकर बुलंदियों को छू रहे हों...वर्तमान में ऐसे परिवेश का अध्ययन करते हुए चिंताग्रस्त से दीखते डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक’ जी आज के दौर की भयावह सच्चाइयों के विषय में यूँ लिखते हैं:
 "सम्बन्ध आज सारे व्यापार हो गए हैं
अनुबंध आज सारे बाज़ार हो गए हैं 
जीवन के हाशिए पर घुट-घुट के जी रहे हैं
माँ-बाप सहमे-सहमे गम अपना पी रहे हैं
कल तक जो पालते थे अब भार हो गए हैं 
सब टूटते बिखरते परिवार हो गए हैं..." 
***
"खो गया जाने कहाँ है आचरण?
देश का दूषित हुआ वातावरण!!..."
***
"मुखौटे राम के पहने हुए रावण ज़माने में !
लुटेरे ओढ़ पीताम्बर लगे खाने-कमाने में !!
दया के द्वार परबैठे हुए हैं लोभ के पहरे
मिटी संवेदना सारीमनुज के स्त्रोत हैं बहरे
सियासत के भिखारी व्यस्त हैं कुर्सी बचाने में 
लुटेरे ओढ़ पीताम्बर लगे खाने-कमाने में !..." 
***
वो रहते भव्य भवनों मेंकभी थे जो वीराने में!   
***
श्रमिक का हो रहा शोषणधनिक के कारखाने में 
***
"राजनीति परिवार नहीं है
भाई-भाई में प्यार नहीं है 
--
"क्या दुनिया की शक्ति यही है 
छल प्रपंच को करता जाता
अपनी झोली भरता जाता
झूठे आँसू आँखों में भर
मानवता को हरता जाता
हाँ कलियुग का व्यक्ति यही है ..." 
**
       अजीब दौर है येआज रक्षक ही भक्षक बन गए हैं ! कुत्तों को चमड़ी की हिफाज़त करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी है ! ऐसी ही कुछ स्थिति की विषमताओं पर उनका यह कटाक्ष देखिए:
"धरा रो रही हैगगन रो रहा है
अमन बेचकर आदमी सो रहा है
सहमती-सिसकती हुई बन्दगी है !
जवानी में थकने लगी ज़िन्दगी है !!
जुगाड़ों से चलने लगी ज़िन्दगी है !!! ..." 
***
"कृष्ण स्वयं द्रौपदी की लूट रहे लाज
चिड़ियों के कारागार में पड़े हुए हैं बाज़..."
***
"कैसे मैं दो शब्द लिखूँ और कैसे उनमें भाव भरूँ?
परिवेशों के रिश्ते छालों केकैसे अब घाव भरूँ?...."
***
"रेतीले  रजकण में कैसेशक्कर के अनुभव भरूँ? ..."
***
      परंतु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वो इस स्थिति से निराश हैंबल्कि वो पूरी तरह से आशान्वित हैं कि हमारे प्रयासों से स्थिति ज़रूर बदलेगी ! जीवन में उतार-चढ़ाव तो आते ही रहते हैं ! समय के साथ बहुत कुछ बदलता है ! परंतु जीवन में आशा के महत्त्व को वो बखूबी जानते हैं:
"युग के साथ-साथसारे हथियार बदल जाते हैं
नौका खेवन वालेखेवनहार बदल जाते हैं..." 
***
"कभी कुहराकभी सूरज
कभी आकाश में बादल घने हैं
दु:ख और सुख भोगने को
जीव के तन-मन बने हैं !!..."
 ***
"आशा पर संसार टिका है
आशा पर ही प्यार टिका है...."
***
"आशाओं में बल ही बल है
इनसे जीवन में हलचल है...
आशाएं हैं तो सपने हैं
सपनों में बसते अपने हैं...
आशाएं जब उठ जायेंगी
दुनियादारी लुट जायेंगी
उड़नखटोला द्वार टिका है ...." 
*** 
"करोगे इश्क़ सच्चा तोदुआएं आने वाली हैं !
दिल-ए-बीमार कोदेने दवाएं आने वाली हैं !!..." 
***
"लक्ष्य है मुश्किल बहुत ही दूर है
साधना मुझको निशाना आ गया है...." 
***
"हाथ लेकर हाथ में जब चल पड़े
साथ उनको भी निभाना आ गया है...."
***
      यह उनका आशावादी दृष्टिकोण ही तो है जो इतनी विषमताओं के बावजूद सुबह-सवेरे बोलती चिड़ियाएंखेतों में झूमते हुए गेहूँ की बालियाँझूमकर इठलाती हँसती लहराती हुई सरसोंफागुन की फगुनियापेड़ो पर कोपलिया लेकर आया मधुमासधुल उड़ाती पछुआनाचते हुए मोरबसंत की ऋतूमूंगफलीगज़क रेवड़ी चाट-पकोड़ी पेड़ों पर चहकती चिड़ियाछम-छम बजती गोरी की पायलियाँचहकती-महकती सूनी गलियाँमहकती हुई  बालाएं और बुढ़िया,  गुंजार करते भौरे,टेसुओं के फूलगति हुई कोयलमस्त होकर बल खाती हुई कचनार की कच्ची कली सब कुछ उनको अपनी ओर आकर्षित करते हुए उनकी कविताओं का हिस्सा बन जाते हैं और प्रकृति के ऐसे ही दृश्यों में खोकर डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक’ जी श्रंगार की कविता रच डालते हैं ! कुछ पंक्तियाँ देखिए: 
"खिल उठा सारा चमनदिन आ गए हैं प्यार के !
रीझने के खीझने केप्रीत और मनुहार के !!..." 
***
"गुनगुनी सी धूप मेंमौसम गुलाबी हो गया!
कुदरती नवरूप काजीवन शराबी हो गया !!...." 
***
"प्रीत है एक आगइसमें ताप जीवन भर रहे...." 
***
"बादल तो बादल होते हैं
नभ में कृष्ण दिखाई देते
निर्मल जल का सिन्धु समेटे
लेकिन धुआँ-धुआँ होते हैं...." 
***
"सोचने को उम्र सारी ही पड़ी है सामने
जीत के माहौल मेंक्यों  हार की बातें करें
प्यार के दिन हैं सुहानेप्यार की बातें करें!!...." 
***
"धड़कन जैसे बंधी साँस से
ऐसा गठबंधन कर लो
पानी जैसे बंधा प्यास से
ऐसा परिबंधन कर लो..." 
***
"हाथ लेकर जब चले तुम हाथ में
प्रीत का मौसम सुहाना हो गया...." 
*** 
     उनके मन में एक आदर्श वतन/मानव की छवि है जिसे वो साकार देखना चाहते हैं ! उनकी यह कामना कहीं-कहीं स्पष्ट दीखती है: 
"आदमी से न इंसानियत दूर हो
पुष्पकलिका सुगंधों से भरपूर हो...."  
....
"मन सुमन हों खिलेउर से उर हों मिले
लहलहाता हुआ वो चमन चाहिए
ज्ञान-गंगा बहेशांति और सुख रहे
मुस्कराता हुआ वो वतन चाहिए..."  
***
       मौजूदा परिस्थितयों में बदलाव के लिए हम सभी का योगदान आवश्यक है ! अब यह सर्वविदित है कि अंतर्जाल के माध्यम से आज सभी को अपने को अभिव्यक्त करने का वर्चुअल स्पेस मिला है ! हम ब्लॉग/ट्वीटर/फेसबुक आदि के माध्यम से प्रतिदिन अपने को किसी न किसी रूप में अभिव्यक्त करते हैं ! आज के साहित्य/लेखन पर चिंता जताते हुए वो आश्चर्य चकित होकर लिखते हैं:
"जीवन की अभिव्यक्ति यही है 
क्या शायर की भक्ति यही है ...." 
     लेखन के प्रति सजगता बरतने हेतु वो लिखते हैं:
"शब्द कोई व्यापार नहीं है
तलवारों की धार नहीं है ...."   
      इतिहास गवाह है कि अगर कुछ सार्थक लिखा जाए तो वो न केवल आज के लिए बल्कि युगों-युगों के लिए लोगों के दिलों में अपनी पहचान छोड़ जाता है...आने वाली पीढ़ी को नयी दिशा दे जाता है ! हम सभी जानते हैं कि  चाहे रामायण हो या गीता/महाभारत ऐसे अनेकों ग्रन्थ आदिकाल से हमारी चाहत का केंद्र बने रहे हैं और आज भी हैं...श्री राजेन्द्र राजन जी के गीत की पंक्तियाँ याद आती हैं: धन दौलत कोठी कारों का सुख तो हमको भी संभव है/ लेकिन हमसे रामायण-सा अब कोई ग्रंथ असंभव है/तुलसी की भाँति हमारा कल जग में सत्कार कहाँ होगा...मानव का जन्म विशिष्ट है,उसे ऐसे कुछ सार्थक और महान कार्य करने ही चाहिएं जो युगों तक उसकी गाथा कहें...तभी इस जन्म की सार्थकता है ! ऐसी ही मनोदशा में डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक’ जी लिखते है:
"चरण-कमल वो धन्य हैं
समाज़ को जो दें दिशा
वे चाँद तारे धन्य हैं
हरें जो कालिमा निशा..." 
***
"जो राम का चरित लिखें
वो राम के अनन्य हैं
जो जानकी को शरण दें
वो वाल्मीकि धन्य हैं..."
***
"अपने को तालाबों तक सीमित मत करना
गंगा की लहरों-धाराओं से मत डरना
आंधीपानीतूफानों से लड़ते जाओ !
पथ आलोकित हैआगे को बढ़ते जाओ !! 
उत्कर्षो के उच्च शिखर पर चढ़ते जाओ ! 
पथ आलोकित हैआगे को बढ़ते जाओ !!..." 
***
"चरैवेति के मूल मंत्र को
अपनाओ निज जीवन में
झंझावतों के काँटे
पगडंडी पर से हट जाएँ ...." 
*** 
     अंत में अपनी वाणी को यहीं पर विश्राम देते हुए हम आप सबसे यही गुज़ारिश करेंगे कि एक बार आप स्वयं इस सुख के सूरज’ के सान्निध्य का पूरा-पूरा लाभ उठाएं !  धन्यवाद!!
--डॉ. सारिका मुकेश
 पुस्तक का नाम:  सुख का सूरज 
ISBN:987-93-80835-01-3
लेखक:  डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
(मोबाइल: 9997996437) 
ब्लॉग: http://uchcharan.blogspot.in/ 
प्रकाशक: आरती प्रकाशन
लालकुआंनैनीताल (उत्तराखण्ड)
प्रकाशन वर्ष: 2011 
मूल्य: 100/- रु. मात्र

आंग्ल नव वर्ष की शुभकामनाएं ---डा श्याम गुप्त ...

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आंग्ल नव वर्ष की शुभकामनाएं ---डा श्याम गुप्त ...

                                
 

पहली जनवरी------ ...डा श्याम गुप्त की कविता....

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पहली जनवरी------ ...डा श्याम गुप्त की कविता....

१. देव घनाक्षरी ( ३३ वर्ण , अंत में नगण )

पहली जनवरी को मित्र हाथ मिलाके बोले ,
वेरी वेरी हेप्पी हो ये न्यू ईअर,मित्रवर |
हम बोले शीत की इस बेदर्द ऋतु में मित्र ,
कैसा नव वर्ष तन काँपे थर थर थर |
ठिठुरें खेत बाग़ दिखे कोहरे में कुछ नहीं ,
हाथ पैर हुए छुहारा सम सिकुड़ कर |
सब तो नादान हैं पर आप क्यों हैं भूल रहे,
अंगरेजी लीक पीट रहे नच नच कर ||


२. मनहरण कवित्त (१६-१५, ३१ वर्ण , अंत गुरु-गुरु.)-मगण |

अपना तो नव वर्ष चैत्र में होता प्रारम्भ ,
खेत बाग़ वन जब हरियाली छाती है |
सरसों चना गेहूं सुगंध फैले चहुँ ओर ,
हरी पीली साड़ी ओड़े भूमि इठलाती है |
घर घर उमंग में झूमें जन जन मित्र ,
नव अन्न की फसल कट कर आती है |
वही है हमारा प्यारा भारतीय नव वर्ष ,
ऋतु भी सुहानी तन मन हुलसाती है ||


३ मनहरण --
 

सकपकाए मित्र फिर औचक ही यूं बोले ,
भाई आज कल सभी इसी को मनाते हैं |
आप भला छानते क्यों अपनी अलग भंग,
अच्छे खासे क्रम में भी टांग यूं अडाते हैं |
हम बोले आपने जो बोम्बे कराया मुम्बई,
और बंगलूरू , बेंगलोर को बुलाते हैं |
कैसा अपराध किया हिन्दी नव वर्ष ने ही ,
आप कभी इसको नज़र में न लाते हैं |



Drshyam Gupta's photo.

मेरे ..श्रृंगार व प्रेम गीतों की शीघ्र प्रकाश्य कृति ......"तुम तुम और तुम". से ....प्रथम गीत ------ इन गीतों को मुखरित करदो ....डा श्याम गुप्त

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.मेरे ..श्रृंगार व प्रेम गीतों की शीघ्र प्रकाश्य कृति ......"तुम तुम और तुम". से ....प्रथम गीत ------ 

    इन गीतों को मुखरित करदो ....



मेरे गीत तुम्हारा वंदन इन गीतों को मुखरित करदो |
निज उष्मित अधरों के स्वर दे इन गीतों में मधु रस भरदो |
ह्रदय-पत्र पर चले लेखनी पायल के स्वर की मसि भरदो |
                                                              
                                                                  इन गीतों को मुखरित करदो |
                                                                 पायल के स्वर की मसि भरदो ||

मेरे गीत तुम्हारे मन के स्वर की मधुर कल्पनाएँ हैं|
तेरे मृदुल गात की अनुपम सुकृत सुघर अल्पनायें हैं |
इन गीतों में प्रीती रंग भर इन्द्रधनुष प्रिय विम्बित करदो |
                                                            इन गीतों में मधु रस भरदो |

                                                           इन्द्रधनुष प्रिय विम्बित करदो|| |

इन गीतों में प्रियतम तेरी बांकी चितवन मृदू मुस्कानें |
मादक यौवन की झिलमिल है देह-यष्टि की सुरभित तानें |
खिलती कलियों के सौरभ की खिल खिल खिल मुस्कानें भरदो |


                                                       खिल खिल खिल मुस्कानें भरदो | 
                                                        इन गीतों को मुखरित करदो ||


इन गीतों में विरह-मिलन के विविध रंग रूपक उपमाएं |
पल पल रंग बदलते जीवन-जग की विविध व्यंजनायें |
मधुर रागिनी सुरभित साँसों की दे इनमें जीवन भरदो |
                                                      इन गीतों में जीवन भरदो|

                                                     इन गीतों को मुखरित करदो ||

मेरे गीत तुम्हारी ही तो स्वर सरगम के अनुयायी हैं |
तेरी पगढ़वानी, नूपुर रुनझुन अनहद नाद के अध्यायी हैं |
स्वस्ति वचन, मुकुलित स्वर देकर इन गीतों में अमृत भरदो |
                                                             इन गीतों में अमृत भरदो|
                                                        इन गीतों को मुखरित करदो ||

Drshyam Gupta's photo.

ब्रजभाषा व उसकी काव्य-यात्रा -- डा श्याम गुप्त

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  ब्रजभाषा व उसकी काव्य-यात्रा   --  डा श्याम गुप्त
          विक्रम की 13वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी तक भारत के मध्यदेश की मुख्य साहित्यिक भाषा एवं साथ ही साथ समस्त भारत की साहित्यिक भाषा के रूप में रहने के कारण ब्रज की इस जनपदीय बोली ने अपने उत्थान एवं विकास के साथ आदरार्थ ‘भाखा’ व "भाषा"नाम प्राप्त किया और "ब्रजबोली"नाम से नहीं, अपितु "ब्रजभाषा"नाम से विख्यात हुई। विभिन्न स्थानीय भाषाई समन्वय के साथ समस्त भारत में विस्तृत रूप से प्रयुक्त होने वाली हिन्दी का पूर्व रूपयह ‘ब्रजभाषा‘ अपने विशुद्ध रूप में यह आज भी आगरा, धौलपुर, मथुरा और अलीगढ़ जिलोंमें बोली जाती है। इसे हम "केंद्रीय ब्रजभाषा"के नाम से भी पुकार सकते हैं।
         ब्रजभाषा में ही प्रारम्भ में हिन्दी-काव्य की रचना हुई।सभी भक्त कवियों, रीतिकालीन कवियों ने अपनी रचनाएं इसी भाषा में लिखी हैं जिनमें प्रमुख हैं सूरदास, रहीम, रसखान, केशव, घनानंद, बिहारी, इत्यादि। हिन्दी फिल्मों के गीतों में भी बृज के शब्दों का प्रमुखता से प्रयोग किया गया है।वस्तुतः उस काल में हिन्दी का अर्थ ही ब्रजभाषा से लिया जाता था |
ब्रजभाषा का जन्म, विस्तार ,विकास व काव्य यात्रा -
                 भारतीय आर्य भाषाओं की परंपरा में विकसित होने वाली "ब्रजभाषा"शौरसेनी भाषा की कोख से जन्मी है | संस्कृत का प्रचलन कम होने पर प्राकृत व अपभ्रंश के उपरांत विक्सित साहित्यिक भाषा - भाखा या भाषा ही ब्रजभाषा के नाम से देश–राष्ट्र की साहित्यिक भाषा बनी |गोकुल में बल्लभ सम्प्रदाय का केन्द्र बनने के बाद से ब्रजभाषा में कृष्ण साहित्य लिखा जाने लगा और इसी के प्रभाव से ब्रज की बोली साहित्यिक भाषा बन गई। भक्तिकाल के प्रसिद्ध महाकवि सूरदास से आधुनिक काल के श्री वियोगी हरि तक ब्रजभाषा में प्रबंध काव्य और मुक्तक काव्यों की रचना होती रही।
       इसका विकास मुख्यत: पश्चिमी उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेशमें हुआ। मथुरा, अलीगढ़, आगरा, भरतपुर और धौलपुर ज़िलों में आज भी यह संवाद की भाषा है।पूरे क्षेत्र में ब्रजभाषा हल्के से परिवर्तन के साथ विद्यमान है। इसीलिये इस क्षेत्र के एक बड़े भाग को ब्रजांचल या ब्रजभूमि भी कहा जाता है।
      यद्यपि पीलीभीत, शाहजहाँपुर, फर्रूखाबाद, हरदोई, इटावा तथा कानपुर की बोली को कन्नौजी नाम दिया है, किन्तु वास्तव में यहाँ की बोली मैनपुरी, एटा बरेली और बदायूं की बोली से भिन्न नहीं हैं। इन सब ज़िलों की बोली को 'पूर्वी ब्रज'कहा जा सकता है| बुन्देलखंड की बुन्देली बोली भी ब्रजभाषा का ही रुपान्तरण है। बुन्देली को 'दक्षिणी ब्रज' कहा जा सकता है |
          साहित्यिक ब्रजभाषा के सबसे प्राचीनतम उपयोग का प्रमाण महाराष्ट्र मेंमिलता है। महानुभाव सम्प्रदाय तेरहवीं शताब्दी के अंत में सन्तकवियों नेएक प्रकार की ब्रजभाषा का उपयोग किया। कालान्तर में साहित्यिकब्रजभाषा का विस्तार पूरेभारत में हुआ और अठारहवीं, उन्नीसवीं शताब्दी में दूर दक्षिण में तंजौर और  केरलमें ब्रजभाषा की कविता लिखी गई। सौराष्ट्र व कच्छमें ब्रजभाषा काव्य की पाठशाला चलायी गई, जो स्वाधीनता की प्राप्ति के कुछदिनों बाद तक चलती रही थी ।  उधर पूरब मेंयद्यपि साहित्यिक ब्रज में तो नहींसाहित्यिक ब्रज रूपी स्थानीय भाषाओं में पद रचे जाते रहे।  बंगाल औरअसम मेंइन भाषा को ब्रजबुलिनाम दिया गया। इस ब्रजबुलीका प्रचार कीर्तन पदों में और दूर  मणिपुर तकहुआ। साहित्यिक ब्रजभाषा की कविता ही गढ़वाल, कांगड़ा,  गुलेर बूंदी, मेवाड़, किशनगढ़ की चित्रकारी का आधार बनी और कुछ क्षेत्रों में तो चित्रकारों ने कविताएँ भी लिखीं। गढ़वाल के मोलाराम का नाम उल्लेखनीय है। गुरुगोविन्दसिंह के दरबार में ब्रजभाषा के कवियों का एक बहुत बड़ा वर्ग  था।
          उन्नीसवीं शताब्दी तक काव्यभाषा के रूप में ब्रजभाषा का अक्षुण्ण देशव्यापी  वर्चस्व रहा। इस प्रकार लगभग आठ शताब्दी तक बहुत बड़ेव्यापक क्षेत्र में मान्यता प्राप्त करने वाली साहित्यिक भाषा रही। इस देशकेसाहित्य के इतिहास में ब्रजभाषा ने जो अवदान दिया है  उसके बिना देश व साहित्य की रसवत्ता और संस्कारिता का मूल ही हमसे छिन जायगा |आधुनिकहिन्दी नेसाहित्यिक भाषा के रूप में जो ब्रजभाषा का स्थान लिया है, वह स्थान भी ब्रजभाषा की व्यापकता के ही कारण सम्भव हुआ है। इस प्रकार से साहित्यिकब्रजभाषा  आधुनिक हिन्दी की धरती है।  प्रारम्भिक अवस्था से ही ब्रजभाषा की धरती ने हीआधुनिक खड़ीबोली की कविता कोअधिक लचीला बनाने की शक्ति दी उसके उक्ति विधान व सादृश्य विधान व मुहावरों ने प्रेरणा दी | सूक्ष्मता से यदि प्रसाद, पन्त, निराला, महादेवीकी काव्यधारा का अध्ययन करें तो हमें ब्रजभाषा के प्रभाव से आई हुई लोच नज़र आयेगी।
          एक प्रकार से ब्रजभाषा ही मुक्तक काव्य भाषा के रूप में उत्तर भारतके बहुत बड़े हिस्से में एकमात्र मान्य भाषा थी।उसकी विषयवस्तु श्री कृष्ण प्रेम तक ही सीमित नहीं थी, उसमें सगुण-निर्गुण भक्ति की विभिन्न धाराओं की अभिव्यक्ति सहज रूप में हुई और इसी कारण ब्रजभाषा जनसाधारण के कंठ में बस गई।1814में एक अंग्रेज़ अधिकारी मेजर टॉमस ने सलेक्शन फ़्रॉम दि पॉपुलर पोयट्री ऑफ़ दि हिन्दूजनामक पुस्तक में सिपाहियों से संग्रहीत लोकप्रिय पदों का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। इस में अधिकतर दोहे, कवित्त और सवैये हैं, जो ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवियों के द्वारा रचित हैं एवं केशवदास के भी छन्द इस संकलन में हैं। इससे यह बात प्रमाणित होती है कि, मौखिक परम्परा से ब्रजभाषा के छन्द दूर-दूर तक फैले और लोगों ने उन्हें कंठस्थ किया। उनके अर्थ पर विचार किया और उन्हें अपने दैनिक जीवन का एक अंग बनाया। इस मायने मेंसाहित्यिक ब्रजभाषा का भाग्य आज की साहित्यिक हिन्दी की अपेक्षा अधिक स्पृहणीय है।
              रचना बाहुल्य के आधार पर प्राय: यह समझा जाता है कि ब्रजभाषा काव्य एकांगी या सीमित भावभूमि का काव्य है। ब्रजभाषा काव्य का विषयमूल रूप से शृंगारी चेष्टा-वर्णन तक ही सीमित है। साधारण मनुष्य के दु:ख-दर्द या उनके जीवन-संघर्ष का चित्र नहीं है पर जब हम भक्ति-कालीन काव्य का विस्तृत सर्वेक्षण करते हैं और उत्तर मध्यकाल की नीति-प्रधान रचनाओं में यह संसार बहुत विस्तृत दिखाई पड़ता है। चाहे सगुण भक्त कवि हों अथवा निर्गुण भक्त कवि; आचार्य कवि हों, स्वछन्द कवि या सूक्तिकार सभी लोक व्यवहार के प्रति बहुत सजग हैं और इन सबकी लौकिक जीवन की समझ बहुत गहरी नुकीली है।
          भारतेन्दु की मुकरियों मेंव्यंग्य रूप में सामान्य व्यक्ति की प्रतिक्रिया, सामान्य-जीवन के बिम्ब परआधारित प्रस्तुत मिलती है-
सीटी देकर पास बुलावै, रुपया ले तो निकट बिठावै।
लै भागै मोहि खेलहि खेल, क्यों सखि साजन ना सखि रेल।।
भीतर-भीतर सब रस चूसै, हंसि-हंसि तन मन धन सब मूसै।
ज़ाहिर बातन में अति तेज, क्यों सखि साजन नहिं अंगरेज़।|
        भूषण की तो बात ही क्या अनेक कवियों के भीतर धरती का लगाव, जो जन-जन के अराध्य आलंबनों से जुड़े हुए हैं, बहुत सरल ढंग से अंकित मिलता है। देवका एक प्रसिद्ध छन्द है, जिसमें बारात के आकर विदा होने में और उसके बाद की उदासी का चित्र मिलता है-
काम परयौ दुलही अरु दुलह, चाकर यार ते द्वार ही छूटे।
माया के बाजने बाजि गये परभात ही भात खवा उठि बूटे।
आतिसबाजी गई छिन में छूटि देकि अजौ उठिके अँखि फूटे।
देवदिखैयनु दाग़ बने रहे, बाग़ बने ते बरोठहिं लूटे।
          ब्रजभाषा की काव्ययात्रा में एक मूल स्वरअवश्य ही मिलता है  वह है तरह-तरह के भेदों और अलगावों को बिसराकर एक सामान्य भाव-भूमि तैयार करना।  इसी कारण ब्रजभाषा कविता हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई सभी में व्याप्त हुई।
         उत्तर भारत के संगीत में चाहे ध्रुपद धमार, ख्याल, ठुमरी या दादरे में  सर्वत्र हिन्दू-मुसलमान सभी प्रकार के गायकों के द्वारा ब्रजभाषा का ही प्रयोग होता रहा और आज भी जिसे हिन्दुस्तानी संगीत कहा जाता है, उसके ऊपर ब्रजभाषा ही छायी हुई है और आधुनिक हिन्दी की व्यापक सर्वदेशीय भूमिका इसी साहित्यिक ब्रजभाषा के कारण सम्भव हुई|
       ब्रजभाषा साहित्य का कोई अलग इतिहास नहीं है, इसका कारण यह है कि हिन्दी और ब्रजभाषा दो सत्ताएँ नहीं हैं अपितु एक-दूसरे की पूरक हैं।
नानक के इसपद में देखिये---- ब्रजभाषा व हिन्दी का मिला जुला रूप है ---
जो नर दुख नहिं माने।
सुख सनेह अरु भय नहिं जाके, कंचन माटी जानै।
नहिं निन्दा नहिं अस्तुति जाकें, लोभ मोह अभिमाना।
गुरु किरपा जेहि नर पै कीन्ही तिन्ह यह जुगति पिछानी।
नानक लीन भयो गोविन्द सौ ज्यों पानी सँग पानी।
ब्रजभाषा की समृद्धता, सर्वसुलभता व साहित्य में लाक्षणिक सौन्दर्य की वृद्धि ---
          ब्रजभाषा के माध्यम से पूरे देश कीकविता में एक ऐसी भावभूमि बनी जिसमें सभी वर्ग के जन भागी हो सकते थे और राष्ट्र ने एक ऐसी भाषा पाई, जिसकी गूँज मन को सौम्य तथा भक्त- भाव एवं लास्य से समन्वित बना सकतीथी। इस युग में भाषा में सुन्दर व्याकरणीय प्रयोग हुए  एक ओर घनानन्द जैसे कवियों में लाक्षणिक प्रयोगों का विकासहुआ, जिसमें लगियै रहै आँखिन के उर आरतिजैसे प्रयोग अमूर्त को मूर्त रूप देने के लिए उदभूत हुए। दूसरी ओर सीधे मुहावरे की अर्थगर्भिता प्रदर्शित की गई।  जैसे-
‘अब रहियै न रहियै समयो बहती नदी पाँय पखार लै री।...(ठाकुर)
             प्रसाद गुण और लयधर्मी प्रवाहशीलता का उत्कर्ष भीइस युग में पहुँचा। जैसे-
आगे नन्दरानी के तनिक पय पीवे काज
तीन लोक ठाकुर सो ठुनकत ठाड़ौ है...(पद्माकर)
गंध ही के भारन मद-मंद बहत पौन...द्विजदेव
रैदास के पद ब्रजभाषा के और अधिक विक्सित रूप में हैं ---जो आधुनिक हिन्दी के निकट आते हुए हैं----
अब कैसे छूटे नाम रट लागी।
प्रभुजी तुम चन्दन हम पानी। जाकी अंग अंग बास समानी।
प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करी रैदासा।।
      धर्मदास के ब्रजभाषा पदों में हल्की सी भोजपुरी छटा है
झर लागै महलिया गगन महराय।
सुन्न महल से अमृत बरसै, प्रेम आनन्द ह्वै साधु नहाय।
धरमदास बिनवै कर जोरी, सतगुरु चरन में रहत समाय।
      मूलतः उपदेश की भाषा या फटकार की भाषा में अनेक क्षेत्रीय भाषाओं के तत्त्व मिलते हैं, किन्तु जहाँ साहित्यिकता एवं रागात्मक संवेदना तीव्र है, वहाँ भाषा परिनिष्ठित है और यह परिनिष्ठित भाषा ब्रज है।
       गेय पद रचना पर तो ब्रजभाषा का अक्षुण्ण अधिकारहै। तुलसीदास जी ने स्वयं भिन्न प्रयोजनों से भिन्न-भिन्न प्रकार की भाषा का प्रयोग किया। अवधी, ब्रज व अन्य विभिन्न प्रांतीय भाषाओं से मिश्रित हिन्दी ‘भाखा’में उन्होंने रामचरित मानसलिखा। ब्रजभाषा में विनय-पत्रिका,  गीतावली,  दोहावली,  कृष्ण-गीतावली लिखी |  ठेठ अवधी मेंपार्वती-मंगल, जानकी-मंगल लिखा और साहित्यिक ब्रजभाषा के भी अनेक रूप उन्होंने प्रस्तुत किए।
        स्थानीय भाषा-रुपों पर आधारित शैली वस्तुगत व विषयगत भाषा के साथ चलती है और अपने स्वतंत्र शैली-द्वीप या उपनिवेश बनाने लगती है। जब रामचरित्र की मर्यादाएँ, दिव्य श्रृंगार -माधुर्य में निमज्जित हो जाती हैं, निर्गुण वाणी से निर्गत रहस्यमूलक श्रृंगारोक्तियाँ अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाने लगती है और राज्याश्रित श्रृंगार में राधाकृष्ण प्रतीक हो जाते हैं, तब आरंभिक स्थितियों में माधुर्य- श्रृंगार की ब्रजभाषा शैली अन्य भाषा- द्वीपों में भी विस्तार करने लगती हैऔरब्रजभाषा शैली अन्य स्थानीय भाषाओं से मैत्री शैली क्षेत्रों की सीमाओं का निर्धारण करती है।
ब्रजभाषा का अन्य भाषाओं से सह अस्तित्व---
 १. सधुक्कड़ी-----संत कवियों के सगुण भक्ति के पदों की भाषा तो ब्रज या परंपरागत काव्यभाषा है, पर निर्गुनबानी की भाषा नाथपंथियों द्वारा गृहीतखड़ी बोलीया सधुक्कड़ी भाषाहै। प्राचीन रचनाओं में ब्रजी और खड़ी बोली के रुपों का सहअस्तित्व मिलता है।ऐसा प्रतीत होता है कि पद- काव्यरुप के लिए ब्रजी का प्रयोग रुढ़ होता जा रहा था। नाथ और संत भी गीतों में इसी शैली का प्रयोग करते थे।  सैद्धांतिक चर्चा या निर्गुन वाणी सधुक्कड़ी में होती थी|
२. गुजरात और ब्रजभाषा---गुजरात की आरंभिक रचनाओं मेंशौरसेनी अपभ्रंश की स्पष्ट छाया है। नरसी, केशवदास आदि कवियों की भाषा पर ब्रजभाषा का प्रभाव भी है और उन्होंने ब्रजी में काव्य रचना भी की है।  हेमचंद्र के शौरसेनी के उदाहरणों की भाषा ब्रजभाषा की पूर्वपीठिकाहै | गुजरात के अनेक कवियों ने ब्रजभाषा अथवा ब्रजी मिश्रित भाषा में कविता की।भालण, केशवदास तथा अरवा आदिकवियों का नाम इस संबंध में उल्लेखनीय है। अष्टछापी कविकृष्णदास भी गुजरात के ही थे। गुजरात में ब्रजभाषा कवियों की एक दीर्घ परंपरा है जो बीसवीं सदी तक चली आती है।इस प्रकार ब्रजभाषा गुजराती कवियों के लिए निज- शैली ही थी।
3.मालवाऔर गुजरात को एक साथ उल्लेख करने की परंपरा ब्रज के लोकसाहित्य में भी मिलतीहै |
४.बुंदेलखंड--  ब्रजभाषा के लिए ग्वालियरीका प्रयोग भी हुआ है ब्रजभाषा शैली की सीमाएँ इतनी विस्तृत थीं कि ब्रजी और बुंदेली की संरचना प्रायः समान है। साहित्यिक शैली तो दोनों क्षेत्रों की बिल्कुल समान रही। ब्रज और बुंदेलखंड का सांस्कृतिक संबंध भी सदा रहा है। ब्रजभाषा का एक नाम ग्वालियरी भी था।


५.सिंध और पंजाब----में  गोस्वामी लालजीका नाम आता है। इन्होंने १६२६ वि. में गोस्वामी विट्ठलनाथजी का शिष्यत्व स्वीकारकिया। सिंध में वैष्णव धर्म का प्रचार ब्रजभाषा में आरंभ हुआ। लालजी ब्रजभाषा के मर्मज्ञ थे।इस प्रकार सिंध में ब्रजभाषा साहित्य की पर्याप्त उन्नति की। पंजाब में ---गुरु नानकने भी ब्रजभाषा में कविता की। आगे भी कई गुरुओं ने ब्रजभाषा में कविता रची। गुरुगोविंद सिंहका ब्रजभाषा- कृतित्व महत्त्वपूर्ण है ही। गुरु दरबारों में व राजदरबारों में भी ब्रजभाषा के कवि रहते थे इन कवियों में सिक्खों का विशेष स्थान है। सिख संतों ने धार्मिक प्रचार के लिए ब्रजभाषा को भी चुना । इस प्रकार पंजाब जो खड़ी बोली, पंजाबी, हरियाणवी की मिश्रित शैली का क्षेत्र माना जा सकता है, ब्रजभाषा की शैली के विकास में योग देता रहा।
६. बंगाल :सार्वदेशिक शौरसेनी के प्रभाव क्षेत्र में बंगाल था ही। बल्कि यों कहना चाहिए कि पूर्वी अपभ्रंश पश्चिम भारत से ही पूर्व में आई।अवह का प्रयोग मैथिल कोकिल विद्यापति ने कीर्तिलता में किया। इसमें मिथिला और ब्रज के रुपों का मिश्रणहै। बंगाल के सहजिया- साहित्य की रचना भी मुख्यतः इसी में हुई है।
     वैष्णव साधु समाज की जो भाषा बनी उसका नाम ब्रजबुलिहै। इसके विकास में मुख्य रुप से ब्रजी और मैथिली का योगदान था।बंगाल के कविवृंद मैथिली, बंगाली और ब्रजभाषा के मेल से घटित ब्रजबुली शैलीको अपनानेलगे। इसी भाषा में गोविंददास, ज्ञानदास आदि कवियों का साहित्य मिलता है। मैथिली मिश्रित ब्रजी आसाम केशंकरदेव के कंठ से भी फूट पड़ी। बंगाल और उत्कलके संकीर्तनों की भी यही भाषा बनी।
७. महाराष्ट्रब्रजभाषा शैली का प्रसार महाराष्ट्र तक दिखलाई पड़ताहै। सबसे प्राचीन रुप नामदेव की रचनाओंमें मिलते हैं। ज्ञानेश्वर, एकनाथ, तुकाराम, रामदास प्रभृति भक्त-संतों की हिंदी रचनाओं की भाषा, ब्रज और दक्खिनी हिंदी है।
      मुस्लिम काल में भी शाहजी एवं शिवाजी के दरबार में रहने वाले ब्रजभाषा के कवियों का स्थान बना रहा।कवि भूषण तो ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवि थे ही।
८.दक्षिण मेंखड़ीबोली शैली का ही दखनी नाम से प्रसार हुआ | इन मुस्लिम राज्यों के आश्रित साहित्यकारों ने ग्वालेरी कविता का उल्लेख बड़ी श्रद्धा के साथ किया है। तुलसीदास के समकालीन मुल्ला वजही ने सबरस में ग्वालेरी के तीन दोहे उद्धृत किए हैं। ब्रज-शैली के या ब्रज के प्रचलित दोहों का प्रयोग वजही ने बीच-बीच में किया है| अतः दक्खिन क्षेत्र खड़ी बोली शैली के विकास का क्षेत्र था। प्रायः गद्य रचनाओं में हरियाणवी बोली का प्रयोग मिलताहै, पद्य रचना में ब्रजभाषा शैली का मिश्रण है। गद्य में लिखित प्रेमगाथाओं के बीच में ब्रजभाषा शैली के दोहे प्रयुक्त मिलते हैं।  ब्रजभाषा शैली का संगीत समस्त भारत में प्रसिद्धथा।केरल के महाराजा राम वर्मा -स्वाति-तिरुनाल के नाम से ब्रजभाषा में कविता करते थे।
       ब्रज शैली क्षेत्र--ब्रजभाषा काव्यभाषा के रुप में प्रतिष्ठित हो गई। कई शताब्दियों तक इसमें काव्य- रचना होती रही। सामान्य ब्रजभाषा- क्षेत्र की सीमाओं का उल्लंघन करके ब्रजभाषा- शैली का एक वृहत्तर क्षेत्र बना। रीतिकाल के कवि आचार्य भिखारीदासजी ने स्पष्ट कहा कि- ‘यह नहीं समझना चाहिए कि ब्रजभाषा मधुर- सुंदर है बस,  इसके साथ संस्कृत और फारसी ही नहीं, अन्य भाषाओं का भी पुट रहता है। फिर भी ब्रजभाषा शैली का वैशिष्ट्य प्रकट रहता है।‘इससे यह भी सिद्ध होता है कि ब्रजभाषा शैली अनेक भाषाओं से समन्वित थी।वास्तव में १६ वीं शती के मध्य तक ब्रजभाषा की मिश्रित शैली सारे मध्यदेश की काव्य- भाषा बन गई थी।
पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के अनुसार  ब्रज की वंशी- ध्वनि के साथ अपने पदों की अनुपम झंकार मिलाकर नाचने वाली मीरा राजस्थान की थीं, नामदेव महाराष्ट्र के थे, नरसी गुजरात के थे, भारतेंदु हरिश्चंद्र भोजपुरी भाषा क्षेत्र के थे। बिहार में भोजपुरी, मगही और मैथिली भाषा क्षेत्रों में भी ब्रजभाषा के कई प्रतिभाशाली कवि हुए हैं। पूर्व में बंगाल के कवियों ने भी ब्रजभाषा में कविता लिखी।
पश्चिम में राजस्थान तो ब्रजभाषा शैलियों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में करता हीरहा,गुजरात और कच्छ तक ब्रजभाषा शैली समादृत थी।कच्छ के महाराव लखपत बड़े विद्याप्रेमी थे। ब्रजभाषा के प्रचार और प्रशिक्षण के लिए इन्होंने एक विद्यालय भी खोला था।
        पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा शैली को ग्रहण करती हुई, पिंगल नामक एक भाषा- शैली का जन्महुआ|पिंगल शब्द राजस्थान और ब्रज के सम्मिलित क्षेत्र में विकसित और चारणों में प्रचलित ब्रजी की एक शैली के लिए प्रयुक्तहुआ है। पिंगल का संबंध शौरसेनी अपभ्रंश और उसके मध्यवर्ती क्षेत्र से है।
     रासो की भाषा को इतिहासकारों ने ब्रज या पिंगल मानाहै। वास्तव में पिंगल ब्रजभाषा पर आधारित एक काव्य शैलीथी, यह जनभाषा नहीं थी। इसमें राजस्थानी और पंजाबी का पुट है।ओजपूर्ण शैली की दृष्टि से प्राकृत या अपभ्रंश रुपों का भी मिश्रण इसमें किया गयाहै। इस शैली का निर्माण तो प्राकृत पैंगलम ( १२ वीं- १३ वीं शती ) के समय हो गया था, पर इसका प्रयोग चारण बहुत पीछे के समय तक करते रहे। पीछे पिंगल शैली भक्ति- साहित्य में संक्रमित हो गई।
      अतः स्पष्ट हो जाता है कि ब्रजभाषा भाषा व ब्रज शैली के खंड-उपखंड समस्त भारत में बिखरे हुए थे। कहीं इनकी स्थिति सघन थी और कहीं विरल |
       आधुनिक युग में भारतेंदु व उनके पिता गिरधरदास ब्रज भाषा में रचना करते थे  यहाँ से खडीबोली व ब्रज भाषा का मिश्र रूप प्रारम्भ हुआ जो आधुनिक हिन्दी खड़ीबोली की पूर्व भूमिका बना |१८७५ में हरिश्चंद्र चन्द्रिका में अमृतसर के कवि संतोष सिंह का कवित्त ब्रज मिश्रित हिन्दी का उदाहरण है ---
हों द्विज विलासी वासी अमृत सरोवर कौ
काशी के निकट तट गंग जन्म पाया है |
शास्त्र ही पढ़ाया कर प्रीति पिता पंडित ने 
पाया कवि पंथ राम कीन्हीं बड़ी दाया है ||
प्रेम को बढाया अब सीस को नबाया देखो,
मेरे मन भाया कृष्ण पांय पे चढ़ाया है ||
  ब्रजभाषा साहित्य व गद्य ---
प्रायः ब्रजभाषा साहित्य की बात करते समय उसमें गद्य का समावेश नहीं किया जाता। इसका कारण यह नहीं है कि ब्रजभाषा में गद्य और साहित्यिक गद्य है ही नहीं।  वैष्णवों  के वार्ता साहित्य में, भक्ति ग्रन्थों के टीका साहित्य में तथा रीतकालीन ग्रन्थों के टीका साहित्य में ब्रजभाषा गद्यका प्रयोग हुआ है,| छापाखाने के आगमन के बाद गद्य का महत्व बढ़ा , लल्लूलाल जी ने अपने प्रेमसागर में ब्रजभाषा से भावित गद्य की रचना की और वास्तव में   वह गद्य ही आधुनिक गद्य की भूमि बना| 
         प्रारम्भ में ही भारत में आने के बाद मुसलमानों ने जबान-ए-हिंदीका प्रयोग आगरा-दिल्ली के आसपास बोली जाने वाली भाषा ( जो मूलतः ब्रजभाषा थी ) के लिए किया। जबान-ए-हिंदीमाने हिंद में बोली जाने वाली जबान। इस इलाके के गैर-मुसलिम लोग बोले जाने वाले भाषा-रूप कोभाखाकहते थे, हिंदी नहीं।यह भाखा, ब्रजभाषा का देशभर की स्थानीय भाषाओं से प्रभावित खडीबोली प्रभावित रूप व हिन्दी का पूर्व रूप थी |
           कबीरदास का कथन था--संस्किरित है कूप जल, भाखा बहता नीर।
महात्मा गोरखनाथ ( तेरहवीं सदी ) ने सदाचार और धर्म के तत्व की ओर समाज का ध्यान आकर्षित किया और इसी सूत्र से हिन्दी के गद्य-साहित्य की सृष्टि कर प्रथम हिन्दी-गद्य-लेखक के रूप मेंवे कार्य-क्षेत्र में अवतीर्ण हुए। गुरु गोरखनाथ की पद्य की भाषा में अनेक प्रान्तों के शब्दों का प्रयोग है। किन्तु गद्य की भाषा राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा है तथा उसमें संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग भी मिलता है। यथा---
''सो वह पुरुष संपूर्ण तीर्थ अस्नान करि चुकौ, अरु संपूर्ण पृथ्वी ब्राह्मननि कौ दै चुकौ, अरु सह जग करि चुकौ, अरु देवता सर्व पूजि चुकौ, अरु पितरनि को संतुष्ट करि चुकौ, स्वर्गलोक प्राप्त करि चुकौ, जा मनुष्य के मन छन मात्रा ब्रह्म के विचार बैठो।''
गोस्वामी विट्ठलनाथ के पुत्र गोस्वामी गोकुलनाथने भी 252 एवं 84 वैष्णवों की वार्ता..नामक दो ग्रन्थ रचे | गोस्वामीजी की भाषा ब्रजभाषा व खड़ीबोली का मिश्र रूप है ----
. ''ऐसो पद श्री आचार्य जी महाप्रभून के आगे सूरदास जी ने गायौ सो सुनि के श्री आचार्य जी महाप्रभून ने कह्यौ जो सूर ह्वै के ऐसो घिघियात काहै को है कछू  भगवल्लीला वर्णन करि। तब सूरदास ने कह्यौ जो महाराज हौं तो समझत नाहीं।
''नन्ददास जी तुलसीदास के छोटे भाई हते। सो बिनकूं नाच तमासा देखबे को तथा गान सुनबे को शोक बहुत हतो।''
देव महाकविथे और साधारण सी बात को भी अत्यन्त अलंकृत शैली में लिखने की उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति थी-----उनकी ब्रज व खड़ीबोली मिश्रित भाषा का उदाहरण प्रस्तुत है ----
सिध्दि श्री 108 श्री श्री पातसाहि जी श्री दलपति जी अकबर साह जी आम खासमें तषत ऊपर विराजमान हो रहे और आम खास भरने लगा है जिसमें तमाम उमराव आयआय कुर्निश बजाय जुहार कर के अपनी अपनी बैठक पर बैठ जाया करे अपनी-अपनीमिसिल से।''
      ब्रजभाषा के गद्य में कथा-वार्ता का एकदेशीय विकास हुआ था।  लल्लू लाल जीने प्रेमसागर की रचना की। वे आगरा के रहने वाले थे, इसलिए उनकी रचना में ब्रजभाषा के शब्दों कीभरमारहोना स्वाभाविक था। उस समय भाषा का कोई सर्वमान्य आदर्श उनके सामनेनहीं था, लल्लूलाल जी ने  प्रेम सागर  अपनी अनुमानी हिन्दी में बनाई।ये उर्दू के आदर्श को त्याग कर चले, इसलिएआवश्यकता से अधिक ब्रजभाषा के शब्दउनकी रचना में प्रयोग हुए यथा---
''इतना कह महादेव जी गिरिजा को साथ ले गंगा तीर पर जाय, नीर में न्हाय, न्हिलाय, अति लाड़ प्यार से लगे पार्वती जी को वस्त्रा-'आभूषण पहिराने।''
. ''बालों की श्यामता के आगे अमावस्या की ऍंधोरी फीकी लगने लगी। उसकी चोटी सटकाई लख नागिन अपनी केंचुली छोड़ सटक गयी। भौंह की बँकाई निरख धानुष धकधकाने लगा। ऑंखों की बड़ाई चंचलाई पेख मृग मीन खंजन खिसाय रहे।''
        मुन्शी सदासुख लालने धार्मिक कथा का वर्णन किया तो इन्शाअल्ला खाँने बहुत ही रोचक और सरल तथा मुहावरेदार ठेठ भाषा में प्रेम-कहानी लिखी,  उन दोनोंकेसामने उर्दू का आदर्श था, इसलिए उनकी भाषा विशेष परिमार्जित और खड़ीबोली के रंग में ढली हुई है, इन्शा की भाषा के दो नमूने देखिए-
 'एक दिन बैठे-बैठे यह बात अपने धयान में चढ़ी कि कोई कहानी ऐसी कहिए किजिसमें हिन्दवी छुट और किसी बोली का पुट न मिले तब जाके मेरा जी फूल कीकली के रूप में खिले।
''सिर झुका कर नाक रगड़ता हूँ, उस अपने बनाने वाले के सामने जिसने हम सबकोबनाया है और बात की बात में वह कर दिखाया कि जिसका भेद किसी ने न पाया।''
          इस प्रकार पद्य की भाँति ब्रजभाषा का गद्य भी धीरे धीरे खड़ी बोली में परिवर्तित होने लगा | अतःब्रजभाषा का स्थान उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त से जो खड़ीबोली हिन्दी को मिला, उसमें गद्य की नयी भूमिका का महत्व के साथ साथ अन्य बड़ा कारण था, अंग्रेजों के द्वारा उत्तर भारत में कचहरी भाषा के रूप में उर्दू भाषा को मान्यता देना।  
      इस प्रकार स्वतन्त्रता पश्चात तक हिन्दी का अर्थ ब्रजभाषा ही बना रहा | देश की सांस्कृतिक एकता के लिए ब्रजभाषा एक ज़बर्दस्त कड़ी की भाँति सात शताब्दियों से अधिक समय तक बनी रही  और आधुनिक हिन्दी  की व्यापक सर्वदेशीय भूमिका इसी साहित्यिक ब्रजभाषा के विशद व व्यापक सर्वदेशीय प्रभाव के कारण सम्भव हुई है।
      वास्तव में सरकार  नहीं चाहती थी हिन्दी को और विद्वानों, साहित्यकारों व जनमानस  को भय था कि सरकार को हिन्दी फूटी आँखों नहीं भाती और इस प्रकार हिन्दी कभी राजभाषा नहीं बनेगी अतः खडीबोली को आगे लाया गया परन्तु संस्कृत निष्ठ खडीबोली व उर्दूनिष्ठ हिन्दुस्तानी का द्वंद्व खडा करके हिन्दी को पुनः पीछे धकेल दिया गया, जो आज की हिन्दी की स्थिति है |

ये आज पूछता है बसंत ---डा श्याम गुप्त ..

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ये आज पूछता है बसंत 

ये आज पूछता है बसंत
क्यों धरा नहीं इठलाई है |
इस वर्ष नही क्या मेरी वो,
वासंती पाती आई है |
 
क्यों रूठे रूठे वन उपवन
क्यों सहमी सहमी हैं कलियाँ |
भंवरे क्यों गाते करूण गीत
क्यों फाग नहीं रचती धनिया |
 
ये रंग बसन्ती फीके क्यों
है होली का भी हुलास नहीं |
क्यों गलियाँ सूनी सूनी हैं
क्यों जन मन में उल्लास नहीं |
 
मैं बोला सुन लो ऐ बसंत !
हम खेल चुके बम से होली |
हम झेल चुके हैं सीने पर,
आतंकी संगीनें गोली |
 
कुछ मांगें खून से भरी हुईं
कुछ ढूध के मुखड़े खून रंगे  |
कुछ दीप-थाल, कुछ पुष्प गुच्छ
भी खून से लथपथ धूल सने |  
 
कुछ लोग हैं खूनी प्यास लिए
घर में आतंक फैलाते हैं|
गैरों के बहकावे में आ
अपनों का रक्त बहाते हैं|
 
कुछ तन मन घायल रक्त सने
आंसू निर्दोष बहाते हैं|
अब कैसे चढ़े बसन्ती  रंग
अब कौन भला खेले होली |
 
यह सुन बसंत भी शर्माया,
बासंती चेहरा लाल हुआ |
नयनों से अश्रु-बिंदु छलके
आँखों में खून उतर आया |
 
हुंकार भरी और गरज उठा
यह रक्त बहाया है किसने |
मानवता के शुचि चहरे को,
कालिख से पुतवाया किसने |
 
यद्यपि अपनों से ही लड़ना
ये सबसे कठिन परीक्षा है |
सड जाए अंग अगर कोई,
उसका कटना हे अच्छा है |
 
ऐ देश के वीर जवान उठो
तुम कलम वीर विद्वान् उठो |
ऐ नौनिहाल तुम जाग उठो
नेता मज़दूर किसान उठो |
 
एसा बासंती उड़े रंग ,
मन में हो इक एसी उमंग |
मिलजुल कर देश की रक्षा हित,
देदें सब  तन मन अंग अंग ||

साहित्यकार डा रंगनाथ मिश्र को विद्यासागर की उपाधि....डा श्याम गुप्त

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साहित्यकार डा रंगनाथ मिश्र को उपाधि ---

                 विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ, भागलपुर द्वारा दिनान्क २०-२-२०१६ को साहित्यमूर्ति साहित्यभूषण डा रंगनाथ मिश्र सत्य को विद्यासागर उपाधि ( डी.लिट्.) से अलंकृत करके गौरव प्रदान किया गया |
           हिन्दी साहित्य में अगीत-काव्य के संस्थापक दृष्टा साहित्यकार व युग प्रवर्तक डा रंगनाथ मिश्र सत्य को डा श्याम गुप्त एवं गुरुवासरीय साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्था, आशियाना, लखनऊ की ओर से बधाई व शुभकामनाएं प्रेषित हैं |

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श्री जगन्नाथ प्रसाद गुप्ता स्मृति पुरस्कार -२०१६.... डा श्याम गुप्त....

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           साहित्यकार दिवस -१ मार्च, २०१६--- श्री जगन्नाथ प्रसाद गुप्ता स्मृति पुरस्कार -२०१६....

           सिटी कान्वेंट स्कूल, राजाजी पुरम, लखनऊ के सभागार में, अखिल भारतीय अगीत परिषद् एवं डा रसाल साहित्यिक व शोध संस्थान द्वारा आयोजित ..साहित्यकार दिवस २०१६ के आयोजन के अवसर पर -डा श्याम गुप्त व श्रीमती सुषमा गुप्ता द्वारा ...साहित्य व काव्य में सराहनीय योगदान हेतु प्रदत्त.."श्री जगन्नाथ प्रसाद गुप्ता स्मृति पुरस्कार -२०१६ ".... कवि, समीक्षक व सम्पादक साहित्यकार डा योगेश गुप्त को प्रदान किया गया |

चित्र में ---डा श्याम गुप्त व श्रीमती सुषमागुप्ता डा योगेश को सम्मान प्रदान करते हुए साथ में अगीत संस्था के संस्थापक डा रंगनाथ मिश्र सत्य , ..
------मंच पर प्रख्यात अर्थशास्त्री डा मोहम्मद मोजम्मिल उप- चांसलर आगरा विश्व-विद्यालय, डा विनोद चन्द्र पांडे पूर्व आई ऐ एस एवं पूर्व अध्यक्ष उप्रहिन्दी संस्थान, लखनऊ , डा सुलतान शाकिर हाशमी , पूर्व सलाहकार सदस्य , योजना आयोग, भारत सरकार , डा उषा सिन्हा पूर्व प्रोफ. हिन्दी विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय ....



'साहित्यकार दिवस -१ मार्च, २०१६---  "श्री जगन्नाथ प्रसाद गुप्ता स्मृति पुरस्कार -२०१६ "....    चित्र में ---डा श्याम गुप्त व श्रीमती सुषमागुप्ता डा योगेश को सम्मान प्रदान करते हुए साथ में अगीत संस्था के संस्थापक  डा रंगनाथ मिश्र सत्य , .. ------मंच पर प्रख्यात अर्थशास्त्री डा मोहम्मद मोजम्मिल उप- चांसलर आगरा विश्व-विद्यालय, डा विनोद चन्द्र पांडे पूर्व आई ऐ एस एवं पूर्व अध्यक्ष उप्रहिन्दी संस्थान, लखनऊ , डा सुलतान शाकिर हाशमी , पूर्व सलाहकार सदस्य , योजना आयोग, भारत सरकार , डा उषा सिन्हा पूर्व प्रोफ. हिन्दी विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय .'


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साहित्यकार दिवस -१ मार्च, २०१६--- डा श्याम गुप्त ...

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साहित्यकार दिवस -१ मार्च, २०१६--- डा श्याम गुप्त ...

                                
साहित्यकार दिवस -१ मार्च, २०१६---

------सिटी कान्वेंट स्कूल, राजाजी पुरम, लखनऊ के सभागार में, अखिल भारतीय अगीत परिषद् एवं डा रसाल स्मृति एवं शोध संस्थान द्वारा साहित्यकार दिवस २०१६ के आयोजन किया गया ---
समारोह के अध्यक्षता डा विनोद चन्द्र पांडे विनोद ने के| मुख्य अतिथि आगरा वि विद्यालय के उप-कुलपति प्रख्यात अर्थशास्त्री डा मोहम्मद मुजम्मिल , विशिष्ट अतिथि डा सुलतान शाकिर हाशमी पूर्व सलाहकार केन्द्रीय योजना आयोग एवं प्रोफ. उषा सिन्हा पूर्व विभागाध्यक्ष हिन्दी विभाग लखनऊ वि वि थीं|


                सरस्वती वन्दना वन्दना कुमार तरल एवं वाहिद अली वाहिद ने की , संचालन डा रंगनाथ मिश्र सत्य ने |
                अगीत के संस्थापक साहित्यभूषण, विद्यासागर डा रंगनाथ मिश्र सत्य को उनके जन्म दिवस -१मार्च पर उनके शिष्यों, सद्भावी, प्रशंसकों व अन्य उपस्थित सभी कवियों, विज्ञजनों द्वारा काव्यांजलि, पुष्पांजलि एवं भेंट प्रदान करके उन्हें बधाईयाँ प्रस्तुत कीं गयीं |


                 डा रंगनाथ मिश्र सत्य पर रचित पुस्तक--गुरु महात्म्य का एवं विविध पुस्तकों के लोकार्पण एवं साहित्यकारों को विविध सम्मानों , पुरस्कारों से सम्मानित किया गया | इस अवसर पर साहित्यकारों के दायित्व पर एवं अगीत विधा पर व अन्य विविध अभिभाषण प्रस्तुत किये गये |
मुख्य अतिथि डा मोहम्मद मुजम्मिल ने अपने वक्तव्य में अगीत के राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य की चर्चा की |


चित्र-१.डा सत्य के जन्म दिवस पर शिष्यों द्वारा भेंट ....२.सुषमा गुप्ता द्वारा विशिष्ट अतिथि डा उषा सिन्हा का माल्यार्पण....३.डा सुलतान शाकिर हाशमी को साहित्य रत्नाकर सम्मान ...४.डा योगेश को श्री जगन्नाथ प्रसाद स्मृति पुरस्कार प्रदान करते हुए डा श्याम गुप्त व सुषमा गुप्ता ....५. उपस्थित कविगण व अन्य विज्ञ जन ...६.डा रंगनाथ मिश्र सत्य की पुत्र वधु को सम्मानित करती हुईं श्रीमती सुषमा गुप्ता....७..अगीत के राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व व प्रसार पर बोलते हुए अध्यख डा मोह. मुजम्मिल .... ८. श्रीमती सुषमा गुप्ता को 'पुष्पा खरे'सम्मान प्रदान करते हुए डा रंगनाथ मिश्र सत्य ...९.कविवर देवेश द्विवेदी का सम्मान ...१०.सम्मानित कविगण...११. डा मोहम्मद मुजम्मिल का आख्यान ..



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सृष्टि व मानव जाति के महान समन्वयक—देवाधिदेव शिव ...डा श्याम गुप्त...

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महाशिवरात्रि के अवसर पर विशेष -------
 सृष्टि व मानव जाति के महान समन्वयक—देवाधिदेव शिव 
 
                  प्राणी व मानव कुल एवं मानवता के मूल समन्वयक त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने समस्त प्राणी जगत ( देव, दनुज ,मानव, गंधर्व आदि सभी का आपस में सामाजिक संयोजन करके एक विश्व मानव कुल की नींव रखी | शिव जो वस्तुतः निरपेक्ष, सबको साथ लेकर चलने वाले महान समन्वयवादी थे, ने ब्रह्मा, विष्णु के सहयोग से इंद्र आदि देव एवं अन्य असुर आदि सभी कुलों को आपस में समन्वित किया और एक महान मानव समूह को जन्म दिया जो तत्पश्चात ‘आर्य’ कहलाये |
                        यह उस समय की बात है जब भारतीय भूखंड एक द्वीप के रूप में अफ्रीका ( गोंडवाना लेंड) से टूट कर उत्तर में एशिया की ओर बढ़ रहा था | मूल गोंडवानालेंड में विक्सित जीव व आदि-मानव पृथक हुए भारतीय भूखंड के नर्मदा नदी क्षेत्र गोंडवाना प्रदेश में डेनीसोवंस( अर्धविकसित) एवं नियंडर्थल्स (अविकसित) मानव में विक्सित होरहे थे एवं सभ्यता व संकृति का विकास होरहा था| ये मानव यहाँ विक्सित हुए एवं समूहों व दलों में भारत में उत्तर की ओर बढ़ते हुए, भारतीय प्रायद्वीप के एशियन छोर से मिल जाने पर बने मार्ग से उत्तर भारत होते हुए सुदूर उत्तर-मध्य एशिया क्षेत्र - सुमेरु क्षेत्र व मानसरोवर-कैलाश क्षेत्र पहुंचे एवं पश्चिमी एशिया-योरोप से आये अन्य अविकसित/ अर्धबिकसित मानवों से मिलकर विक्सित मानव, होमो सेपियंस में विक्सित हुए| इसीलिये सुमेरु क्षेत्र को भारतीय पौराणिक साहित्य में ब्रह्म-लोक कहा जाता है, जहां ब्रह्मा ने मानव की व सृष्टि की रचना की| सुमेरु के आस-पास के क्षेत्र ही देवलोक, इन्द्रलोक, विष्णु लोक, स्वर्ग आदि कहलाये जहाँ विभिन्न उन्नत प्राणियों मानवों ने सर्वप्रथम बसेरा किया |
                           शेष अफ्रीकी भूखंड से उत्तर-पश्चिम की ओर चलते हुए आदिमानव अन्य समूहों में योरोप-एशिया पहुंचता रहा, नियंडरथल्स में विक्सित होता रहा परन्तु उत्तर-पश्चिम की अनिश्चित शीतल जलवायु व मौसम से बार बार विनष्ट होता रहा, बचे-खुचे मानव पूर्व-मध्य एशिया के सुमेरु–कैलाश क्षेत्र में उपस्थित विक्सित मानवों से मिल गए|
                            जनसंख्या बढ़ने पर, ब्रह्मा द्वारा मानव के पृथ्वी पर निवास की आज्ञा से, मानव सर्वत्र चहुँ ओर फ़ैलने लगे | पूर्वोत्तर की ओर चलकर बेयरिंग स्ट्रेट पार करके ये पैलिओ-इंडियन अमेरिका पहुंचे व सर्वत्र फ़ैल गए| पूर्व की ओर चाइना, जापान, पूर्वी द्वीप समूह आस्ट्रेलिया तक| दक्षिण में समस्त भारतीय भूमि पर फैलते हुए ये मानव सरस्वती घाटी ( मानसरोवर से पंजाब तक) में; जहां दक्षिणी भारत की नर्मदा घाटी में पूर्व में रह गए मानव समूह उन्नति करते हुए पहुंचे मानवों (जिन्होंने हरप्पा, सिंध सभ्यता का विकास किया|) से इनकी भेंट हुई और दोनों सभ्यताओं ने मिलकर अति-उन्नत सरस्वती घाटी सभ्यता की नींव रखी|
                           यह वह समय था जब सुर-असुर द्वंद्व हुआ करते थे | शिव जो एक निरपेक्ष देव थे सुर, असुर, मानव व अन्य सभी प्राणियों, वनस्पतियों आदि के लिए समान द्रष्टिभाव रखते थे, सभी की सहायता करते थे | उन्हें पशुपतिनाथ व भोलेनाथ भी कहा जाने लगा |
१.शिव ने ही समुद्र मंथन से निकला कालकूट विष पान करके समस्त सृष्टि को बचाया|
२.शिव ने ही देवताओं को अमृत प्राप्ति पर दोनों ओर बल-संतुलन हेतु असुरों को संजीवनी विद्या प्रदान की |
३. शिव ने ही मानसरोवर से सरस्वती किनारे आये हुए इंद्र-विष्णु पूजक मानवों एवं दक्षिण से हरप्पा आदि में विक्सित स्वयं संभु सेक शिव के समर्थकों मानवों के दोनों समूहों, के मध्य मानव इतिहास का प्रथम समन्वय कराया, जिसके हेतु वे स्वयं दक्षिण छोड़कर कैलाश पर बस गए पहले दक्ष पुत्री सती से प्रेम विवाह पुनः हिमवान की पुत्री उत्तर-भारतीय पार्वती से विवाह किया तथा अनेकों असुरों का भी संहार किया, और महादेव, देवाधिदेव कहलाये |
                             हरप्पा, सिंध सभ्यता का विकास करने वाले भारतीय मानव( गोंडवाना प्रदेश के मूल मानव जो अपने देवता शम्भू-सेक के पूजक थे अपनी संस्कृति विकसित करते हुए उत्तर तक पहुंचे थे | हरप्पा में प्राप्त शिवलिंग, पशुपति की मोहर आदि इसके प्रमाण हैं| अर्थात शिव मूल रूप से भारत के दक्षिण क्षेत्र के देवता थे |
यही दोनों समूह मिलकर एक अति-उन्नत सभ्यता के वाहक हुए जो सरस्वती सभ्यता, या वैदिक सभ्यता कहलायी एवं यही लोग ‘आर्य’ कहलाये अर्थात सृष्टि के सर्वश्रेष्ठ मानव | जो विकासमान हिमालय की नीची श्रेणियों को पार करके देवालोकों व समस्त विश्व में आया जाया करते थे| जनसंख्या व अन्य विकास की विभिन्न सीढ़ियों के कारण पुनः यही मानव समस्त विश्व में फैले और समस्त यूरेशिया, जम्बू द्वीप या वृहद् भारत कहलाया | आज समस्त विश्व में यही भारतीय मानव एवं उनकी पीढियां निवास करती हैं|
विश्व के प्रत्येक कोने में प्राप्त शिवलिंग एवं शिव मंदिर उनके सर्वेश्वर एवं देवाधिदेव, महादेव होने के प्रमाण हैं|

१. देवाधिदेव -शिव ....२.शिवलिंग -अफ्रीका ...३.शिव चीनी ड्रेगन एवं बोनों के साथ ..४.. पशुपति नाथ ( हरप्पा)...५.शिवलिंग--कम्बोडिया ...

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मुस्कराहट --गीत----डा श्याम गुप्त

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        मुस्कराहट
 ( शीघ्र प्रकाश्य गीत संग्रह--जीवन दृष्टि -से )

मुस्कराहट से मीठा तो कुछ भी नहीं,
मन का दर्पण है ये मुस्कुराते रहो |

तन भी सुन्दर है, मन भी है भावों भरा,
भव्य चहरे पर यदि मुस्कराहट नहीं |
ज्ञान है, इच्छा भी, कर्म अनुपम सभी ,
कैसे झलके, न यदि मुस्कुराए कोई |
मन के भावों को कैसे मुखरता मिले,
सौम्य आनन् पर जो मुस्कराहट नहीं |

मुस्कराहट से मीठा तो कुछ भी नहीं,
मन का दर्पण है ये मुस्कुराते रहो |

ये प्रसाधन ये श्रृंगार साधन सभी,
चाँद लम्हों की सुन्दरता दे पायंगे |
मुस्कराहट खजाना है कुदरत का वह,
चाँद तारों से चहरे दमक जायंगे |
मुस्कराहट तो है अंतर्मन की खुशी,
झिलमिलाती है चहरे को रोशन किये |

मुस्कराहट से मीठा तो कुछ भी नहीं,
मन का दर्पण है ये मुस्कुराते रहो |

मुस्कराहट तो जीवन की हरियाली है,
ज़िंदगी में चमत्कार कर जायगी |
मन मधुर कल्पनाओं के संसार में,
साद-विचारों से भर मुस्कुराया करे |
सौम्य सुन्दर सहज भाव आभामयी,
रूप सौन्दर्य चहरे पै ले आयगी |

मुस्कराहट से मीठा तो कुछ भी नहीं,
मन का दर्पण है ये मुस्कुराते रहो |

एक गरिमा है आत्मीयता से भरी,
शिष्ट आचार की है ये पहली झलक |
चाहे कांटे हों राहों में बिखरे हुए,
मुस्कुराओ सभी विघ्न कट जायंगे |
इन गुलावों की शोखी पर डालें नज़र,
रह के काँटों में भी मुस्कुराते हैं वो |

मुस्कराहट से मीठा तो कुछ भी नहीं,
मन का दर्पण है ये मुस्कुराते रहो |
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ये आज पूछता है बसंत ---डा श्याम गुप्त ...

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ये आज पूछता है बसंत

ये आज पूछता है बसंत
क्यों धरा नहीं हुलसाई है |
इस वर्ष नहीं क्या मेरी वह
बासंती पाती आई है |
क्यों रूठे रूठे वन-उपवन,
क्यों सहमी सहमी हैं कलियाँ |
भंवरे क्यों गाते करूण गीत,
क्यों फाग नहीं रचती धनिया |
ये रंग वसंती फीके से ,
है होली का भी हुलास नहीं |
क्यों गलियाँ सूनी-सूनी हैं,
क्यों जन-मन में उल्लास नहीं |
मैं बोला ऐ सुनलो बसंत !
हम खेल चुके बम से होली |
हम झेल चुके हैं सीने पर,
आतंकी संगीनें गोली |
कुछ मांगें खून से भरी हुईं,
कुछ दूध की बोतल खून रंगीं |
कुछ दीप-थाल, कुछ पुष्प-गुच्छ,
भी धूल से लथपथ खून सने |
कुछ लोग हैं खूनी प्यास लिए,
घर में आतंक फैलाते हैं|
गैरों के बहकावे में आ,
अपनों का रक्त बहाते हैं |
कुछ तन मन घायल रक्त सने,
आंसू निर्दोष बहाते हैं|
अब कैसे चढ़े बसन्ती रंग,
अब कौन भला खेले होली ?
यह सुन वसंत भी शरमाया,
वासंती चेहरा लाल हुआ |
नयनों से अश्रु-बिंदु छलके,
आँखों में खून उतर आया |
हुंकार भरी और गरज उठा,
यह रक्त बहाया है किसने!
मानवता के शुचि चेहरे को,
कालिख से पुतवाया किसने |
ऐ उठो सपूतो भारत के,
बासंती रंग पुकार रहा |
मानवता की रक्षा के हित,
तुम भी करलो अभिसार नया |
जो मानवता के दुश्मन हैं,
हो नाता, रिश्ता या साथी |
जो नफ़रत की खेती करते,
वे देश-धर्म के हैं घाती |
यद्यपि अपनों से ही लड़ना,
यह सबसे कठिन परीक्षा है |
सड़ जाए अंग अगर कोई,
उसका कटना ही अच्छा है |
ऐ देश के वीर जवान उठो,
तुम कलमवीर विद्वान् उठो |
ऐ नौनिहाल तुम जाग उठो,
नेता मज़दूर किसान उठो |
होली का एसा उड़े रंग,
मन में इक एसी हो उमंग |
मिलजुलकर देश की रक्षा हित,
देदेंगे तन मन,  अंग-अंग |
 


कैलाश पर शिव-शक्ति युगल के दर्शन------- डा श्याम गुप्त

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चित्र में देखिये --एक्सिस मुंडी---- ब्रह्माण्ड  का केंद्र -----कैलाश पर्वत....

----- क्या आपको कैलाश स्थित आदि-देव शिव के दर्शन होते हैं---ध्यान से देखिये, चित्र को बड़ा करें ..... और क्या क्या दृश्यमान होता है ---

------ध्यान से एवं बड़ा करके देखेंगे तो मिलेगा----शिव का भोलेनाथ रूप....शिव का औघडनाथ रूप..... शिव-शक्ति का संयुक्त---अर्धनारीश्वर रूप ....--...


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कैलाश पर्वत का गूगल द्वारा लिया गया हवाई चित्र -----
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